Bihar assembly elections 2020: मांझी की पतवार से जदयू बैलेंस करेगा पासवान का पावर !
बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी महागठबंधन से अलग होने के बाद मंथन की मुद्रा में हैं। अभी तक के संकेतों के मुताबिक वे एनडीए में शामिल होंगे। लेकिन एनडीए में उनके आगमन का स्वरूप क्या होगा, इस पर विचार- विमर्श चल रहा है। वे पिछले कुछ समय से लगातार नीतीश कुमार की तारीफ कर रहे हैं। जदयू चाहता है कि मांझी अपनी पार्टी का उसमें विलय कर लें। लेकिन हम के नेता एनडीए में घटक दल के रूप में शामिल होना चाहते हैं। मांझी भी एनडीए में सीट शेयरिंग के आधार पर Bihar assembly elections 2020 का चुनाव लड़ना चाहते हैं। माना जा रहा है नीतीश कुमार भी एनडीए में मांझी की भूमिका को लेकर दिलचस्पी ले रहे हैं। जदयू रामविलास पासवान के पावर को बैंलस करने के लिए मांझी की इंट्री को अपने हक में मानता है। अगर जीतन राम मांझी एनडीए में आते हैं तो चिराग पासवान की बार्गेंनिंग पावर कम हो जाएगी। जीतन राम मांझी महादलित (मुसहर) समुदाय से आते हैं। उनकी बिरादरी बिहार में अनुसूचित जाति की तीसरी बड़ी ताकत है।
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रामविलास पासवान बनाम जीतन राम मांझी
2015 के विधानसभा चुनाव में रामविलास पासवान और जीतन राम मांझी, दोनों एनडीए में थे। पासवान की लोजपा को 43 सीटें मिलीं थीं और जीतन राम मांझी को 21 सीटें। इस चुनाव में लोजपा को 4.8 फीसदी वोट मिले थे और उसके दो उम्मीदवार जीते थे। जीतन राम मांझी की पार्टी, हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा को 2.3 फीसदी वोट मिले थे और वह एक सीट ही जीत पायी थी। मत प्रतिशत और सीट के लिहाज से दोनों दलों का प्रदर्शन फीका रहा था। भाजपा को कम (53) सीटें जरूर मिली थीं लेकिन उसका मत प्रतिशत राजद औऱ जदयू से भी अधिक था। भाजपा को 24.4 फीसदी, राजद को 18.4 फीसदी और जदयू को 16.8 फीसदी वोट मिले थे। रामविलास पसवान की सक्रियता के बाद भी लोजपा को 2015 में करारी हार देखनी पड़ी थी। उस समय रामविलास पासवान बिहार का मुख्यमंत्री बनना चाहते थे। लेकिन एनडीए की हार ने उनके अरमानों पर पानी फेर दिया। 2015 की शर्मनाक शिकस्त के बाद भी चिराग पासवान 2020 में 80 सीटों पर चुनाव लड़ने के लिए दबाव बनाए हुए हैं। जदयू का कहना है कि पिछले चुनाव में 4.8 फीसदी वोट लाने वाली पार्टी इतनी अधिक सीटें कैसे मांग सकती है ? भाजपा भी चिराग की इस मांग से असहमत है। चिराग की गैरवाजिब मांग को जीतन राम मांझी के नाम से बेअसर की जा सकती है। ऐसे में 2.3 फीसदी वोट लाने वाले ‘हम' को एनडीए में लाना फायदे का सौदा हो सकता है। पासवान और मांझी के वोट शेयर में बहुत ज्यादा का अंतर नहीं है।
मांझी पर दबाव
वोट प्रतिशत (2.3) के हिसाब मांझी चुनावी मुकाबले के ‘स्मॉल प्लेयर' थे इसलिए महागठबंधन में उनको तरजीह नहीं मिली। जीतन राम मांझी अपने दल के इकलौते विधायक हैं। लेकिन उन्होंने राजद पर दवाब बना कर अपने पुत्र संतोष कुमार सुमन को एमएसली बनवा दिया। लोकसभा चुनाव में भी हैसियत से अधिक तीन सीटें लीं। तीनों हारे। विधानसभा उपचुनाव में सीटों को लेकर तेजस्वी से तकरार हुई। मांझी के उम्मीदवार की वजह से राजद के नाथ नगर उपचुनाव में हार का सामना करना पड़ा। हार पर हार के बाद भी जीतन राम मांझी की महत्वाकांक्षा बढ़ती जा रही थी। यही बात उनके खिलाफ चली गयी। राजद ने उनकी उपेक्षा शुरू कर दी। जब तौहीन की इंतहां हो गयी तो मांझी ने महागठबंधन से किनारा कर लिया। अब अगर वे एनडीए में जाते हैं तो उन्हें अपनी ‘तमन्नाओं' को काबू में रखना होगा। राजनीति में महात्वाकांक्षी होना कोई गलत बात नहीं, लेकिन उसके अनुरूप योग्यता और क्षमता भी होनी चाहिए। जीतन राम मांझी ने 2014 में खुद को बड़ा दलित नेता मान कर ही नीतीश कुमार से पंगा लिया था। लेकिन हुआ क्या ? उनकी अब तक की राजनीति स्थिति यही कहती है कि मांझी ने अपनी नाव खुद डुबो ली। उनकी कश्ती यहां-वहां भटक कर आज भी किनारा ही तलाश रही है। वे मजबूर हो कर ही महागठबंधन से अलग हुए हैं। अगर एनडीए में आएंगे तो बहुत तोलमोल की हैसियत में नहीं होंगे।
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कितनी सीटें मिल सकती हैं मांझी को?
मांझी के एनडीए में शामिल होने के बाद सवाल घूम फिर कर सीट शेयरिंग पर ही अएगा। उनको कितनी सीटें मिल सकती हैं ? हालांकि ये अभी दूर की बात है लेकिन चर्चा है कि उनको दस से बारह सीटें दी जा सकती है। क्या मांझी को ये मंजूर होगा ? दरअसल उनका चुनावी ट्रैक रिकॉर्ड इतनी खराब है कि वे किसी बड़े दावे को तर्कसंगत नहीं ठहरा सकेंगे। 2015 के विधानसभा चुनाव में जीतन राम मांझी के साथ कई विधायक और पूर्व मंत्री थे। उनकी छवि एक बड़े नेता की थी । इतने बड़े नेताओं को भी मांझी जीत नहीं दिला सके थे। महाचंद्र प्रसाद सिंह भूमिहार समुदाय के बड़े नेता माने जाते रहे हैं। वे मांझी कैबिनेट में मंत्री भी थे। उन्हें जिताऊ उम्मीदवार माना जा रहा था। लेकिन वे हथुआ सीट पर हार गये थे। इसी तरह वृषिण पटेल की छवि एक बड़े कुर्मी नेता की रही है। वे भी मांझी कैबिनेट में मंत्री थे। लेकिन पटेल भी अपनी परम्परागत वैशाली सीट को बचा नहीं पाय़े। शकुनी चौधरी को बिहार का शक्तिशाली कुशवाहा नेता माना जाता था। तारापुर उनका गढ़ था। इसके बाद भी मांझी उनकी नाव पार नहीं लगा सके। इसी तरह रवीन्द्र राय, अजीत कुमार, राहुल कुमार, अनिल कुमार सीटिंग विधायक थे। लेकिन उन्हें भी शिकस्त झेलनी पड़ी। पूर्व सांसद लवली आनंद की राजपूत समुदाय में मजबूत पैठ थी। इसके बावजूद शिवहर में उनकी हार हुई। इस चुनाव में उनके पुत्र संतोष सुमन भी हारे थे। मांझी खुद अपनी मखदुमपुर की जीती हुई सीट हार गये थे। ये गनीमत रही कि वे इमामगंज से जीत गये वर्ना उनकी पार्टी का खाता नहीं खुलता। जब इतने मजबूत उम्मीदवारों के रहने के बाद भी ‘हम' को 2015 में जीत नहीं मिली तो Bihar assembly elections 2020 में उसकी क्षमता पर कैसे भरोसा किया जा सकता है ? जदयू के इस सवाल का जवाब देना मांझी के लिए आसान नहीं होगा।