बिहार चुनाव: बीजेपी-जदयू को कितनी चुनौती दे पाएंगे कांग्रेस,आरजेडी और वामदल- विश्लेषण
यह पहला मौक़ा है, जब बिहार में राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) और कांग्रेस के साथ तीन प्रमुख वामपंथी दलों का एक मुकम्मल शक्ल में चुनावी गठबंधन हुआ है.
यह पहला मौक़ा है, जब बिहार में राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) और कांग्रेस के साथ तीन प्रमुख वामपंथी दलों का एक मुकम्मल शक्ल में चुनावी गठबंधन हुआ है.
यह भी ख़ास बात है कि 'महागठबंधन' नाम से जाने जा रहे इस चुनावी तालमेल की चर्चा अब सवालों से अधिक संभावनाओं के सिलसिले में होने लगी है.
इसकी पहली वजह बनी हैं वो जनसभाएँ, जिनमें आरजेडी के लिए ही नहीं, वामदलों के लिए भी अच्छी-ख़ासी भीड़ जुट रही है. दूसरी वजह है वो तमाम ख़बरें, जो यहाँ सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और जनता दल युनाइटेड (जेडीयू) से जुड़े कई विधायकों और मंत्रियों के चुनावी दौरे में हो रहे जनविरोध से संबंधित हैं.
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई), मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) और भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी/लिबरेशन) यानी सीपीआई (एमएल) के साथ आरजेडी और कांग्रेस का यह 'महागठबंधन' फिर भी सवालों से बच नहीं पा रहा है.
ज़ाहिर है कि भिन्न विचारधारा और कई आर्थिक-सामाजिक मुद्दों पर मतभेदों के बावजूद आरजेडी और कांग्रेस से इन वामदलों के चुनावी तालमेल का मुख्य आधार ही बीजेपी के विरोध में एक अहम मोर्चा बनना है.
इस विरोध को देशहित में एक बड़ा मक़सद मानते हुए वामपंथी नेता खुल कर कहते हैं कि जहाँ कहीं एनडीए की सत्ता है, वहाँ साम्प्रदायिक ताक़तें संवैधानिक और लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए ख़तरा बन चुकी हैं.
इसी वैचारिक दलील के बूते वामदल उन सवालों को यहाँ चुनावी संदर्भ में ग़ैरज़रूरी बता कर टालते भी हैं, जो सवाल लालू-राबड़ी परिवार या कांग्रेसी गाँधी परिवार से जुड़े शासनकाल के भ्रष्टाचार या बुरे हाल को लेकर उठाये जाते हैं.
चुनावी तालमेल होने का तर्क
बिहार के चुनाव में आरजेडी और कांग्रेस के साथ गठबंधन करने वाले वामदलों को इन दोनों दलों के शासनकाल से जुड़े ऐसे प्रश्न तो असहज कर ही देते हैं, जो वंचित तबकों की उपेक्षा और अन्य विफलताओं से संबंधित होते हैं.
यह भी सच है कि जातिवाद विरोधी उसूलों पर चलने का दावा करने वाले कम्युनिस्ट उस समय बगलें झांकने को विवश दिखते हैं, जब इनके ग़ैर-कम्युनिस्ट सहयोगी दलों की जातीय प्राथमिकता ज़ोर मारने लगती है.
बिहार में जाति संघर्ष के आगे वर्ग संघर्ष को अप्रासंगिक होते मैंने तभी देखा था, जब राज्य के सत्ताशीर्ष पर बैठे लालू प्रसाद यादव वामधारा को जातीय अवरोधों से कमज़ोर कर देने में कामयाब होने लगे थे.
ऐसे में वामपक्ष का यह तर्क स्वाभाविक ही है कि किसी बड़े मक़सद के लिए कुछ छोटे-छोटे समझौते करने पड़ जाते हैं. हालाँकि यहीं पर ''न ख़ुदा ही मिला, न विसाल-ए-सनम'' जैसे पछतावे की आशंका भी रहती है.
इन्हीं तमाम कारणों से ये तीनों वामपंथी दल बिहार के चुनावी 'महागठबंधन' का हिस्सा बन कर भी आरजेडी और कांग्रेस से औपचारिक सियासी गठबंधन के बजाय केवल चुनावी तालमेल होने का तर्क ज़्यादा देने लगते हैं.
जबकि बात दरअसल इस चुनाव में उभर आए उस अवसर से जुड़ी है, जिसमें मृतप्राय जनाधार या दलीय अस्तित्व को बचाने के अलावा राज्य की विधानसभा में उपस्थिति संबंधी इनकी चाहतें छिपी हैं.
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बिहार में वाम राजनीति की 'तब और अब'
बिहार में वाम राजनीति की 'तब और अब' वाली स्थिति पर ग़ौर करें, तो बहुत हद तक स्पष्ट हो जाएगा कि इस बाबत मुख्यतः दो बातों की भूमिका कितनी अहम रही.
पहली ये कि जातीय गोलबंदी वाली सियासत ज्यों-ज्यों बलवती होती गयी, त्यों-त्यों वामपंथ का सामाजिक आधार दरकता चला गया.
दूसरी बात कि खांचाबद्ध वाम एजेंडा से चिपका अदूरदर्शी नेतृत्व धीरे-धीरे जब अपनी समसामयिकता और प्रासंगिकता खोने लगा, तब कैडर भी या तो बिखर गए या भटक गए.
तीन दशक पहले तक बिहार विधानसभा में सीपीआई और सीपीएम की दमदार मौजूदगी रही. 1972 में 35 विधायकों वाली सीपीआई को राज्य विधानसभा में मुख्य विपक्ष का दर्जा मिला था.
1967 से 1990 तक सदन में 22 से लेकर 26 सीटों तक क़ब्ज़ा बनाये रखने वाली सीपीआई साल 2000 आते-आते लुप्तप्राय होने लगी. सीपीएम का तो और भी बुरा हाल हुआ.
फिर 1990 में तत्कालीन इंडियन पीपुल्स फ़्रंट (आईपीएफ़) ने सात विधायकों के साथ विधानसभा में प्रवेश लिया. उसके बाद ही आईपीएफ़ का नाम सीपीआई-एमएल हो गया.
और फिर सीपीआई-एमएल ने 1990 से अब तक कभी 7, कभी 6, तो कभी 5 सीटें ले कर सदन में अपनी उपस्थिति बरक़रार रखी है.
लेकिन, लालू प्रसाद यादव ने आईपीएफ़ के इस उदय पर ऐसी सियासी चाल चली कि आईपीएएफ़ के हार्डकोर समझे जाने वाले सात विधायकों में से चार पाला बदल कर लालू की पार्टी में चले गए.
इस बार 'महागठबंधन' में शामिल वामपंथी दलों में सबसे अधिक, यानी 19 सीटों पर सीपीआई-एमएल चुनाव लड़ रही है. छह सीटों पर सीपीआई और चार सीटों पर सीपीएम ने उम्मीदवार उतारे हैं.
पहले चरण के मतदान वाले जिन आठ विधानसभा क्षेत्रों में सीपीआई-एमएल के प्रत्याशी हैं, वहाँ आरजेडी नेता तेजस्वी यादव की चुनावी रैलियों में भारी भीड़ जुटी.
इसलिए प्रेक्षक मानने लगे हैं कि 'महागठबंधन' के घटक दलों से राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) को, ख़ासकर जेडीयू को कड़ी चुनौती मिल रही है.
सही तालमेल और सीटों पर सही बंटवारा
सियासती ज़रूरत देखिए कि लालू-राबड़ी राज में हाशिये से जा लगे वामदलों को लालू पुत्र तेजस्वी यादव ने अपने दल के साथ जोड़ा है.
यहाँ एक बात और उल्लेखनीय है कि लालू यादव जब वामदलों को जातीय हथियारों से से धकिया कर किनारे लगा रहे थे, तब उन पर यह आरोप भी लगा था कि एक रणनीति के तहत वह माओवादियों (सीपीआई-माओइस्ट) के प्रति नरमी बरतते हैं.
कभी-कभी मज़ाक़ में लालू जी ख़ुद को 'अहिंसक नक्सली' कह कर ऊँची जातियों की हिंसक जमातों (निजी सेनाओं) को इशारों में चेताते भी थे.
उस समय बिहार में जातीय हिंसा का सिलसिला-सा चल पड़ा था. ख़ासकर जहानाबाद, भोजपुर, औरंगाबाद और गया ज़िलों में नरसंहार के कई वारदात हुए थे.
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार आज भी चुनावी सभाओं में उस भयावह दौर का ज़िक्र करना नहीं भूलते हैं. उनकी कोशिश रहती है कि लालू राज वाले पंद्रह साल की विफलताओं से नई पीढ़ी वाक़िफ़ हो जाय लेकिन, मौजूदा समस्याओं का ही असर नई पीढ़ी पर अधिक दिखता है.
तेजस्वी की चुनावी सभाओं में रोषपूर्ण युवाओं और श्रमिकों की तादाद बहुत दिखना यहाँ सत्ताधारी गठबंधन के लिए चिंता वाली बात तो है ही.
आरजेडी के जो आधार वोट हैं, उनका पूरा फ़ायदा वामपंथी पार्टियों को मिलना इसबार ज़्यादा आसान हो गया है. ऐसा इसलिए, क्योंकि सही तालमेल के साथ सीटों का साफ़-साफ़ बँटवारा समर्थक मतदाताओं को भ्रमित नहीं करता है.
इन संभावनाओं के बावजूद 'महागठबंधन' की कुछ ऐसी मुश्किलें भी हैं, जो एनडीए को आश्वस्त कर रही होंगी. जैसे कि कुछ छोटे-छोटे गठबंधन या दल हैं, जिनके निशाने पर मुख्य रूप से 'महागठबंधन' को ही माना जाता है.
चाहे पप्पू यादव का गठबंधन हो, या उपेंद्र कुशवाहा का. समझा यही जाता है कि इन दोनों के जो भी सामाजिक आधार हैं, वो मुख्यत: महागठबंधन के ही आधार वोट में सेंध लगा सकते हैं.
जहाँ तक 'महागठबंधन' के एक घटक कांग्रेस की बात है, वहाँ मामला अभी तक ढीला-ढाला ही लगता है. राहुल गाँधी की चुनावी रैलियों के बाद भी अगर पार्टी में गति नहीं आयी, तो नुक़सान का अंदाज़ा लगाया जा सकता है.