क्या 2015 की तरह इस बार भी बिहार में फेल होगा भोजपुरिया ब्रांड मोदी?
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी क्या भोजपुरी बोल के 2020 के विधानसभा चुनाव में वोट जुटा पाएंगे ? चुनाव से पहले सौगातों की बारिश क्या भाजपा की उम्मीदों का कमल खिला पाएगी ? चुनाव से पहले मोदी की छह वर्चुअल रैलियों में से एक हो चुकी है। 23 सितम्बर तक पांच रैलियां और होनी हैं। 2015 में भी मोदी ने चुनाव से पहले चार रैलियां की थीं। चुनाव की घोषणा के बाद 26 चुनावी सभाएं की थीं। देश में पहली बार किसी प्रधानमंत्री ने विधानसभा चुनाव में इतनी सभाएं की थीं। भीड़ तो जुटी लेकिन वोट नहीं मिले। ब्रांड मोदी फेल हो गया था। अगर पांच साल पहले एनडीए के लिए सियासी हालात ठीक नहीं थे तो 2020 में भी स्थितियां बहुत अच्छी नजर नहीं आ रहीं। नीतीश कुमार और रामविलास पासवान के झगड़े ने खेल में खलल डाल दिया है। भाजपा ने सुलह के लिए वो गर्मजोशी नहीं दिखायी जिसकी उससे उम्मीद की जा रही थी। यानी मोदी एक बिखरी हुई टीम के लिए पिच तैयार कर रहे हैं। मैच तक टीम की मौजूदा बैटिंग लाइनअप बरकरार रहेगी भी या नहीं, कुछ कहा नहीं जा सकता। अगर एनडीए का प्लेइंग इलेवन बदलता है तो नरेन्द्र मोदी भोजपुरिया अंदाज भी टीम की नैया पार नहीं लगा सकता।
कोरोना की अग्निपरीक्षा
बिहार विधानसभा का चुनाव कोरोना संकट के बीच होगा। कोरोना से निबटने में सरकार की आधी-अधूरी तैयारी से लोगों में असंतोष है। अस्पतालों की बदइंतजामी के चलते कोरोना संक्रमित कई लोगों का समय पर इलाज नहीं हुआ। बिहार सरकार पर यह आरोप भी लगा कि वह कोरोना के आंकड़े छिपा कर समय पर चुनाव कराने के लिए तैयार है। केन्द्र और बिहार में एनडीए की सरकार होने के बाद भी आम लोगों की तकलीफें कम नहीं हुईं। बाढ़ पीड़ितों के मन में भी सरकार को लेकर सवाल उमड़-घुमड़ रहे हैं। जब चुनाव होगा तब दर्द के मारे लोग क्या जनादेश देंगे, कुछ कहा नहीं जा सकता। चुनाव के ठीक पहले पीए मोदी घोषणाओं का जो पुलिंदा लेकर बैठे हैं, लोग उसकी हकीकत पूछेंगे। 2015 में भी मोदी ने बड़े-बड़े वायदे किये थे। खुद नीतीश कुमार कई बार मोदी को वायदा पूरा नहीं करने पर उलाहना दे चुके हैं। कोरोना से रोजगार गंवाने लोगों का पेट भाषण से नहीं रोटी से भरेगा। बाहर से आने वाले कामगारों को बिहार में रोजगार देने का वायदा किया था। लेकिन जब सरकार ने उनके लिए कुछ नहीं किया तो वे फिर पलायन करने लगे। मोदी और नीतीश दोनों की विश्वसनीयता इस मामले में प्रभावित हुई है।
वर्चुअल रैली आमसभा का विकल्प नहीं
2020 के चुनाव में कोरोना मानक संचालन प्रक्रिया, भाजपा ही नहीं सभी दलों के एक लिए एक बड़ी चुनौती है। वर्चुअल रैली कभी भी आमसभा का विकल्प नहीं हो सकती। वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग या सोशल मीडिया लाइव के जरिये किया गया जनसंवाद किसी चुनावी सभा की तरह असर नहीं पैदा कर सकता। इसलिए किस दल की कितनी तैयारी है, यह भी कोई यकीन से नहीं कह सकता। बिहार में अमेरिकी पैटर्न पर चुनाव नहीं लड़ा जा सकता। इसके न संसाधन है न माहौल। गांव-देहात में रहने वाले निरक्षर और गरीब वोटर इतनी बंदिशों के बीच कैसे वोट देने निकलेंगे, यह भी एक बड़ा सवाल है। 2015 में जब मोदी ने बिहार में चुनावी सभाएं की थी तब उसमें लोगों की भारी भीड़ जुटती थी। लेकिन जब चुनाव के नतीजे निकले तो भाजपा की झोली खाली रह गयी। 2020 के वर्चुअल रैली में लाखों लोगों के जुड़ने की बात की जा रही है लेकिन तकनीक के जुगाड़ से जुटाये गये लोग क्या उस अनुपात में वोट कर पाएंगे ? जब लोग रू-ब-रू हो कर वोट से मुकर जाते हैं तो आभासी मुलाकात की क्या अहमित ?
क्या भाजपा के मन में कुछ और है ?
कोरोना के गंभीर संकट के बीच भी भाजपा ने पीएम मोदी की 30 रैलियां क्यों तय की हैं ? क्या उसके मन में किसी बात का खटका है ? इस बार तो नीतीश भी भाजपा के साथ हैं। फिर मोदी को इतनी मेहनत करने की क्या जरूरत ? कहा जा रहा है कि भाजपा को अब ब्रांड नीतीश पर पहले की तरह भरोसा नहीं है। कुछ दिनों पहले की केन्द्रीय मंत्री आर के सिंह ने कहा था कि भाजपा अकेले भी बहुमत हासिल कर सकती है लेकिन फिर भी वह नीतीश के साथ चुनाव लड़ेगी। यानी भाजपा मन ही मन एक सुरक्षित विकल्प पर भी गौर कर रही है। सबसे बड़ी समस्या तब सामने आएगी जब सीट बंटवारे का सवाल आएगा। सीट को लेकर जिस तरह नीतीश का लोजपा से पंगा चल रहा है उससे उनके इरादे झलक रहे हैं। नरेन्द्र मोदी ने नीतीश कुमार की तारीफ तो की है लेकिन अभी भी बहुत कुछ पर्दे के पीछे है।
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