क्या कांग्रेस है पासवान का पुराना घर? दिग्गी राजा ने क्यों दिया वापसी का ऑफर?
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कांग्रेस क्या रामविलास पासवान के लिए पुराना घर है? कांग्रेस के नेता दिग्विजय सिंह ने रामविलास पासवान को अपने पुराने घर में लौटने का ऑफर क्यों दिया है? कांग्रेस के नेता पासवान को ये बात क्यों याद दिला रहे हैं कि लोजपा का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन उससे गठजोड़ के बाद ही हुआ था ? लेकिन कांग्रेस ये बात भूल गयी है कि तब लोजपा में राजद का विरोध किया था। लेकिन कांग्रेस ने पुरानी बात याद दिला कर 2020 में लोजपा के लिए एक नया विकल्प सुझा दिया है। चिराग पासवान इस विकल्प पर अमल करते दिख भी रहे हैं। क्या है ये विकल्प ?
पासवान की कैसे हुई कांग्रेस से दोस्ती ?
रामविलास पासवान एंटीकांग्रेस राजनीति की उपज हैं। 1969 में वे संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर विधायक बने थे। लेकिन वक्त के चौराहे पर एक मोड़ ऐसा भी आया कि वे कांग्रेस से दोस्ती के लिए मजबूर हो गये। रामविलास पासवान ने सन 2000 में लोक जनशक्ति पार्टी बनायी थी। इस पार्टी को बनाने के बाद उन्होंने सबसे पहले 2004 का लोकसभा चुनाव लड़ा। इस चुनाव में पासवान ने कांग्रेस और राजद के साथ गठबंधन किया था। सीटों का बंटवारा हुआ तो लालू यादव ने लोजपा को 8 , कांग्रेस को 4 और अपने लिए 26 सीटें रखीं। एक-एक सीट एनसीपी और सीपीएम को दी गयी थी। इस चुनाव में लालू यादव का जबर्दस्त प्रदर्शन रहा। राजद ने अपनी 26 में से 24 सीटें जीत लीं। लोजपा को आठ में से चार सीटों पर जीत मिली। कांग्रेस को 3 सीटें मिलीं। 2004 में जब केन्द्र में मनमोहन सिंह की सरकार बनने लगी तो रेल मंत्री के रूप में रामविलास पासवान का नाम सबसे आगे चल रहा था। चूंकि रामविलास पासवान को रेल मंत्रालय चलाने का अनुभव था इसलिए उन्हें इस पद के लिए सबसे उपयुक्त माना जा रहा था। लालू यादव को जब ये बात मालूम हुई तो वे खुद रेल मंत्री बनने के लिए अड़ गये। राजद के 24 सांसद थे और यूपीए सरकार बनाने में उसकी बड़ी जरूरत थी। लोजपा के केवल 4 सांसद थे। संख्या बल दिखा कर लालू यादव ने मनमोहन सिंह को झुका दिया और रेल मंत्री बनने में कामयाब रहे। लालू के विरोध के चलते रामविलास पासवान रेल मंत्री नहीं बन पाये। पासवान को ये बात चुभ गयी। एक साल बाद ही पासवान को लालू यादव से हिसाब चुकता करने का मौका मिल गया।
फरवरी 2005 का विधानसभा चुनाव
फरवरी 2005 में जब बिहार विधानसभा का चुनाव आया तो रामविलास पासवान ने लालू यादव के खिलाफ चुनाव लड़ने का फैसला किया। लालू के अड़ंगे के कारण वे रंल मंत्री नहीं बन पाये थे। विधानसभा चुनाव में रामविलास पासवान ने कांग्रेस से तो समझौता किया लेकिन राजद के खिलाफ अपने उम्मीदवार उतार दिये। इस चुनाव में लोजपा ने 178 सीटों पर चुनाव लड़ा। रामविलास पासवान ने कांग्रेस की सीटें छोड़ कर राजद के अधिकतर सीटों पर कैंडिडेट दिये। राजद ने 210 सीटों पर चुनाव लड़ा था। लालू यादव ने रामविलास पासवान की चुनौती को बहुत हल्के में लिया था। लेकिन जब नतीजे घोषित हुए तो उनके पैरों तले जमीन खिसक गयी। लोजपा के उम्मीदवार होने की वजह राजद को अधिकतर सीटों पर हार का सामना करना पड़ा। राजद के केवल 75 उम्मीदवार ही जीते और उसके हाथ से सत्ता फिसल गयी। लोजपा के 29 उम्मीदवार जीते। कांग्रेस को 10 सीट मिली। 15 साल बाद कांग्रेस आज नतीजे की याद दिला रही है। फरवरी 2005 के चुनाव में लोजपा (29) ने जो शानदार प्रदर्शन किया उसे फिर वो कभी दोहरा नहीं सकी। 2005 में रामविलास पासवान कांग्रेस के साथ थे इसलिए आज कांग्रेस उसे घर का नाम दे रही है। अगर उस समय लालू यादव ने रामविलास पासवान की बात मान ली होती तो शायद नीतीश कुमार को बिहार का ताज नहीं मिलता। मिलीजुली सरकार बनाने के लिए पासवान ने मुस्लिम मुख्यमंत्री की शर्त रख दी थी जिसे किसी दल ने नहीं माना। आखिरकार सरकार नहीं बनी और अक्टूबर 2005 में फिर चुनाव कराना पड़ा। इस चुनाव में नीतीश ने भाजपा के सहयोग से जीत हासिल कर सत्ता की बागडोर अपने हाथ में ले ली।
2005 ने 2020 के लिए क्या दिया विकल्प ?
आज चिराग पासवान जदयू की सभी सीटों पर उम्मीदवार उतारने की जो बात कर रहे हैं उसका आधार 2005 ही है। 2005 में रामविलास पासवान, लालू यादव के साथ ही यूपीए सरकार में मंत्री थे। लेकिन उन्होंने बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को छोड़ कर राजद के खिलाफ अपने उम्मीदवार दिये। पासवान के इस फैसले से लालू यादव का बेड़ा गर्क हो गया। इसी तर्ज पर 2020 में चिराग पासवान भाजपा के लिए 100 सीटें छोड़ कर 143 सीटों पर लोजपा कैंडिडेट देने की बात कर रहे हैं। यानी चिराग भी 2005 की तरह सियासी बदला लेना चाहते हैं। राजनीति गलियारे में यह भी चर्चा है कि अगर चिराग एनडीए से अलग हो कर 143 सीटों पर चुनाव लड़ते हैं तो यह भाजपा के लिए फायदेमंद होगा। लोजपा अगर 2005 का कारनामा दोहरा लेती है तो चुनाव के बाद नयी संभावनाएं बन सकती हैं। नीतीश जितना कमजोर होंगे भाजपा की उम्मीदें उतनी ही परवान चढ़ेंगी।
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