बिहार: चुनाव ऐलान के एक दिन बाद जानिए NDA-महागठबंधन कितने पानी में?
अभूतपूर्व परिस्थितियों के बीच होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव में किस गठबंधन का पलड़ा भारी होगा ? किसकी तैयारियां बेहतर हैं और कौन जनता की कसौटी पर खऱा उतरेगा ? जदयू-भाजपा नीत गठबंधन यानी एनडीए और राजद-कांग्रेस नीत गठबंधन यानी महागठबंधन के बीच मुकाबला है। हालांकि राजद-कांग्रेस एलायंस के लिए महागठबंधन शब्द का प्रयोग अब तर्कसंगत नहीं रह गया है। महागठबंधन से नीतीश कुमार और जीतन राम मांझी निकल चुके हैं। कुछ और सहयोगी निकलने की तैयारी में हैं। बहरहाल, जानते हैं दोनों गठबंधनों की ताकत और कमजोरी जिसके आधार पर इनकी चुनावी संभावनाओं की तस्वीर खींची जा सके।
सामाजिक समीकरण भाजपा-जदयू के पक्ष में
बिहार की राजनीति एक त्रिभुज की तरह है। राजद, जदयू और भाजपा राजनीतिक त्रिभुज की तीन भुजाएं हैं। ज्योमेट्री का सिद्धांत है कि त्रिभुज की दो भुजाएं मिल तीसरी से बड़ी होती हैं। ठीक इसी तरह बिहार की राजनीति में अगर कोई दो दल मिल जाते हैं वो तीसरे से बड़े हो जाते हैं। पिछले 15 साल से बिहार की राजनीति में ये सिद्धांत लागू है। इस अंकगणित की पुष्टि समाजशास्त्र भी करता है। राजनीतिक आधार पर बिहार का सामाजिक ध्रुवीकरण तीन खेमों में हो गया है। ये तीन खेमे हैं राजद, जदयू और भाजपा। इनमें से कोई अकेले जीत हासिल नहीं कर सकता। जीत के लिए किसी दो ध्रुव का मिलना जरूरी है। 2020 के चुनाव में जदयू और भाजपा एकसाथ हैं। इस हिसाब से जदयू-भाजपा गठबंधन बेहतर स्थिति में हैं। 2015 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को सबसे अधिक 24.4 फीसदी वोट मिले थे। हालांकि उसकी सीटों की संख्या राजद और जदयू से कम थी। भाजपा को 53 सीटें मिलीं थीं। पिछले चुनाव में जदयू को 16.8 फीसदी वोट के साथ 71 सीटों मिलीं थीं। 2015 में राजद को 18.4 फीसदी वोटों के साथ 80 सीटें मिलीं थी। कांग्रेस ने 6.7 फीसदी वोटों के साथ 27 सीटों पर कब्जा जमाया था।
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एनडीए की स्थिति बेहतर
भाजपा और जदयू के वोट शेयर को अगर जोड़ दिया जाय तो यह आंकड़ा 40 फीसदी से अधिक होता है। दूसरी तरफ राजद और कांग्रेस का वोट शेयर 25 फीसदी से भी कम है। ऐसी स्थिति में जदयू-भाजपा गठबंधन का पलड़ा भारी दिख रहा है। ये सच है कि 2015 चुनावी परिस्थितियां अलग थीं और गठबंधन भी अलग था। इस लिए 2015 के वोट शेयर को 2020 के लिए आधार नहीं बनाया जा सकता। लेकिन पिछले वोट शेयर का जिक्र यहां इसलिए जरूरी है क्यों कि इसमें जातीय समीकरण के संकेत छिपे हैं। भाजपा और जदयू का यह जातीय समीकरण लोकसभा चुनाव में दिखायी भी पड़ा था। अतिपिछड़ी जातियों के अधिकांश वोट जदयू को मिले थे। कटिहार, भागलपुर और पूर्णिया सीट जीत कर जदयू ने अल्पसंख्यक वोटों पर अपनी पकड़ दिखा दी थी। भाजपा को सवर्ण, अतिपिछड़े और शिड्यूल्ड कास्ट वोटरों का समर्थन हासिल है। जातीय समीकरण के अलावा एनडीए में नरेन्द्र मोदी और नीतीश कुमार जैसे दो बड़े चुनावी चेहरे हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 96 विधानसभा सीटों पर और जदयू को 92 विधानसभा सीटों पर बढ़त मिली थी। इस लिहाज से भी भाजपा और जदयू की स्थिति बेहतर दिखायी पड़ रही है।
एनडीए की चुनौतियां
2020 का विधानसभा चुनाव कोरोना महामारी के बीच हो रहा है। इसके अलावा बिहार में बाढ़ की भी समस्या है। एक साथ दो बड़ी आपदा झेलने के कारण बिहार के लाखों लोग परेशान हुए हैं। नीतीश सरकार को एंटी इनकम्बेंसी फैक्टर से जूझना पड़ सकता है। 2020 के चुनाव प्रचार का अधिकतम हिस्सा वर्चुअल मोड में रहेगा। हालांकि जदयू और भाजपा ने चुनाव की डिजिटल तैयारी पहले से की हैं। लेकिन इन तैयारियों की चुनावी उपयोगिता अभी परखी नहीं गयी है। नीतीश कुमार की वर्चुअल रैली में बिहार से करीब 32 लाख लोगों को जोड़ने का लक्ष्य रख गया था। लेकिन जब रैली हुई तो बिहार से करीब 12 लाख लोग ही जुड़े। चुनाव प्रचार की इस शैली से कितने वोट मिलेंगे, कहना मुश्किल है। कोरोना गाइडलाइंस में कितने लोग वोट देने निकलेंगे, यह भी एक बड़ा सवाल है। नीतीश कुमार की लोजपा से खटपट भी एनडीए संभावनाओं पर असर डाल सकती है। दूसरी तरफ चुनाव विश्लेषकों का कहना है, बेशक एनडीए के सामने पहले से अधिक चुनौतियां हैं लेकिन विकल्पहीनता ने उसकी राह आसान कर दी है।
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राजद–कांग्रेस गठबंधन का हाल
पिछले पांच साल में राजद की राजनीति उठान से ढलान की तरफ आ रही है। दस साल के बाद उसे 2015 में सत्ता तो मिली लेकिन टकराव की राजनीति ने उसका बेड़ा गर्क कर दिय। लालू के बिना राजद की राजनीति का कोई वजूद नहीं। 2015 में लालू ने राजद को 22 से 80 पर पहुंचाया था। लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में लालू जेल के अंदर थे जिसका खामियाजा राजद को भुगतना पड़ा। नीतीश का अलग होना भी राजद को भारी पड़ गया था। राजद को कांग्रेस का साथ तो मिला लेकिन उसे कोई फायदा नहीं मिला। माई समीकरण जो कभी राजद की सबसे बड़ी ताकत हुआ करता था वो 2019 के चुनाव में बिल्कुल ध्वस्त हो गया। राजद को एक भी सीट नहीं मिली। यहां तक कि उसे यादव और मुस्लिम बहुत सीटों पर भी हार का मुंह देखना पड़ा। 2019 के लोकसभा चुनाव में राजद को सिर्फ 9 विधानसभा सीटों पर बढ़त मिली थी। इससे उसके गिरते जनाधार का अंदाजा लगाया जा सकता है। राजद ने 2015 में जरूर 80 सीटें जीतीं थीं लेकिन उस जीत में नीतीश कुमार की भी हिस्सदारी थी। 2020 में राजद के पास न तो लालू हैं और न ही नीतीश। सारा दारोमदार तेजस्वी यादव पर है। लेकिन तेजस्वी ने अभी तक अपनी नेतृत्व क्षमता साबित नहीं की है। रघुवंश प्रसाद सिंह प्रकरण के बाद तेजस्वी यादव और तेजप्रताप यादव सवालों के घेरे में हैं। राजद को इसका भी नुकसान उठाना पड़ सकता है। तेजप्रताप और तेजस्वी के लिए ऐश्वर्या राय भी एक बड़ी चुनौती होंगी। दूसरी तरफ राजद अपने सामाजिक आधार को बढ़ाने के लिए अति पिछड़ों को जोड़ने की मुहिम चला रखी है। जहां तक कांग्रेस का सवाल है तो बिहार में उसकी ताकत ऐसी नहीं रही कि वह किसी गठबंधन को जीत दिला दे। उसके सारे वोट बैंक कब के बिखर चुके हैं। 2015 में उसे लालू-नीतीश के नाम पर बड़ी जीत (27) मिल गयी वर्ना पिछले कुछ चुनावों से वह तीन-चार विधायकों वाली ही पार्टी थी। उसके 27 में से 16 विधायक ऐसे हैं जो ये मानते हैं कि उन्हें नीतीश कुमार की वजह से जीत मिली। करीब छह फीसदी वोट शेयर वाली पार्टी कांग्रेस, राजद के लिए कितनी मददगार होगी, समझा जा सकता है।
पासवान, मांझी, कुशवाहा, सहनी की ताकत
चिराग पासवान भले अब लोजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं लेकिन पार्टी की पहचान रामविलास पासवान की वजह से है। रामविलास पासवान राष्ट्रीय राजनीति में तो धमक दिखाते रहे हैं लेकिन पिछले 15 साल से वे बिहार विधानसभा के चुनाव में चमक नहीं दिखा पाए हैं। फरवरी 2005 के विधानसभा चुनाव में लोजपा को 29 सीटें मिलीं थीं। अक्टूबर 2005 के चुनाव में लोजपा 10 सीटों पर पहुंच गयी। 2010 और 2015 के विधानसभा चुनाव में उसे तीन और दो सीटें मिलीं। 2010 में उसका वोट शेयर 6.75 था तो 2015 में यह घट कर 4.8 फीसदी हो गया। लोजपा के वोट शेयर भले कम हों लेकिन रामविलास पासवान की असल ताकत वोट ट्रांसफर करने की क्षमता है। अगर वे अपने सहयोगी दल को 4 फीसदी वोट भी ट्रांसफर करते हैं तो चुनावी राजनीति में इसका बहुत महत्व है। जहां तक जीतन राम मांझी, उपेन्द्र कुशवाहा और मुकेश सहनी ही बात है तो इनकी चुनावी सफलता लोजपा से बहुत कम है। 2015 के विधानसभा चुनाव में उपेन्द्र कुशवाहा की रालोसपा को 2.6 फीसदी वोट के साथ दो सीटें मिलीं थीं। जब कि जीतन राम मांझी की हम को 2.3 फीसदी वोटों के साथ केवल एक सीट मिली थी। 2019 के लोकसभा चुनाव में लोजपा को सभी छह सीटों पर जीत मिली थी। जब कि रालोसपा को अपनी पांच, मांझी को अपनी तीन और मुकेश सहनी को अपनी तीन सीटों पर हार झेलनी पड़ी थी। यानी इन नेताओं का जातीय आधार भी ऐसा नहीं है कि वे जीत हासिल कर लें। लालू का नाम भी इन नेताओं की नैया पार न लगा सका। सभी सीटों पर हार के कारण कुशवाहा, मांझी और सहनी की राजनीति हैसियत कम हो गयी है जिसकी वजह से उन्हें महागठबंधन में तवज्जौ नहीं मिली।