क्या अपमान से आहत PK बिहार में नीतीश से हिसाब चुकता कर पाएंगे ?
नई दिल्ली। प्रशांत किशोर यानी पीके कम बोलते हैं। मृदुभाषी और शालीन हैं। अपमान के बाद भी कोई तल्ख टिप्पणी नहीं करते। लेकिन मौका ताड़ कर वार करने से चूकते नहीं। उनकी लाठी बेआवाज होती है। अमित शाह इस लाठी को झेल चुके हैं। पहले बिहार में झेला और अब दिल्ली में। अमित शाह की वजह से ही 2014 में प्रशांत किशोर को भाजपा से अलग होना पड़ा था। उसका हिसाब तो उन्होंने चुकता कर लिया। तो क्या अब नीतीश कुमार की बारी है? क्या जदयू से निकाले जाने से आहत पीके नीतीश से राजनीतिक बदला लेंगे ? नीतीश को हराने के लिए वे किससे हाथ मिलाएंगे ? राजद से या कांग्रेस से ? लेकिन बिहार की राजनीति और सामाजिक स्थिति अन्य राज्यों से अलग है इसलिए पीके की कामयाबी को लेकर आशंकाएं जाहिर की जा रही हैं। बिहार चुनाव में पीके की भूमिका अभी तय नहीं है लेकिन अपने घर (बिहार) में हुई बेइज्जती उन्हें कुछ न कुछ करने के लिए जरूर उकसाएगी।
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प्रशांत किशोर नारा गढ़ने में उस्ताद
केजरीवाल ने दिल्ली में काम किया था। वे जनता में लोकप्रिय भी थे। लेकिन लोकसभा चुनाव में करारी हार ने उन्हें बिल्कुल डरा दिया था। उन्हें अहसास हुआ कि विधानसभा चुनाव में जीत के लिए नये सिरे से रणनीति बनानी होगी। आखिरकार उन्होंने दिसम्बर में प्रशांत किशोर की कंपनी इंडियन पॉलिटिकल एक्शन कमेटी (आइ-पैक) की सेवाएं खरीद लीं। नारा गढ़ने में उस्ताद पीके ने केजरीवाल के लिए एक थीम सॉन्ग तैयार किया- लगे रहो केजरीवाल। इसका म्यूजिक फिल्मी दुनिया के मशहूर संगीतकार विशाल से डडलानी तैयार कराया। नुस्खा कामयाब रहा। केजरीवाल की प्रचंड जीत में इसकी भी बड़ी भूमिका रही। प्रशांत किशोर ने 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में भी कामयाब थीम सॉन्ग तैयार किया था- बिहार में बहार है, नीतीशे कुमार है। नरेन्द्र मोदी की धुआंधार रैलियों के बाद भी नीतीश और लालू की जोड़ी ने शानदार जीत हासिल की थी। तो क्या आठ महीने बाद बिहार में वे एक फिर कमाल करेंगे ?
पीके के लिए राजद में संभावनाएं
लालू के जेल में रहने के कारण राजद को एक सुलझे हुए चुनावी रणनीतिकार की जरूरत है। तेजस्वी अनुभवहीन हैं। ऐसे में राजद को प्रशांत किशोर की सबसे अधिक जरूरत है। 19 जनवरी को जब नीतीश ने पीके को जदयू से निकाला था उसी समय तेजप्रताप यादव ने उनको राजद में लिये जाने की वकालत की थी। इस मामले में लालू यादव ने अभी तक कुछ नहीं कहा है। राजद में वही होगा जो लालू चाहेंगे। पीके को लेकर राजद में विवाद है। तेज प्रताप ने उनका समर्थन किया तो राजद के प्रदेश अध्यक्ष जगतानंद सिंह ने उनका विरोध कर दिया। जगदानंद सिंह ने पीके के बारे में कहा था, वे गंदे लोग हैं। गंदगी में पड़े लोग कहां आ रहे हैं, कहां जा रहे हैं, इससे राजद को कोई मतलब नहीं है। जाहिर है राजद के वरिष्ठ नेताओं को पीके को स्वीकारने में दिक्कत होगी। मेहनत उनकी और जीत का क्रेडिट प्रशांत ले जाएं, यह मंजूर नहीं। इस मामले में अब लालू ही अंतिम फैसला करेंगे। अगर लालू को लगा कि तीस साल के तेजस्वी के लिए पीके कोई चमत्कारी नारा गढ़ देंगे तो उनकी इंट्री तय है। 2015 में नीतीश के चेहरे पर चुनाव लड़कर लालू की पार्टी ने चुनाव जीता था। लालू भी फील्ड में ही थे। सब कुछ मनोकुल था। लेकिन अब कमजोर कांग्रेस और छोटी पार्टियों के भरोसे चुनाव लड़ना है। राजद के अर्जुन को चुनावी रण में किसी मजबूत सारथी की जरूरत तो पड़ेगी।
कांग्रेस में पीके की संभावनाएं
कांग्रेस के मुताबिक प्रशांत किशोर ने अभी तक बिहार चुनाव के लिए उनकी पार्टी से सम्पर्क नहीं किया है। अगर वे चुनाव प्रचार के लिए प्रस्ताव देते हैं तो इस पर गौर किया जाएगा। प्रशांत किशोर ने 2017 यूपी चुनाव के लिए कांग्रेस की रणनीति तैयार की थी। इस चुनाव में कांग्रेस को इतिहास की सबसे बड़ी हार मिली थी। प्रशांत किशोर की खूब फजीहत हुई थी। पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के साथ वे तालमेल नहीं बैठा पाए थे। उन पर आरोप लगा था कि वे यूपी कांग्रेस के नेताओं की उपेक्षा कर सीधे राहुल-सोनिया को रिपोर्ट करते थे। पीके ने कांग्रेस के अमरिंदर सिंह को पंजाब में जरूर जीत दिलायी थी लेकिन बिहार में कांग्रेस की स्थिति पंजाब जैसी नहीं है। यहां कांग्रेस बहुत कमजोर स्थिति में है। वह बिहार में चौथे नम्बर की पार्टी है। अपने वजूद के लिए वह राजद पर निर्भर है। झारखंड चुनाव में स्टार प्रचारक और चुनावी रणनीतिकार होने के बावजूद पीके जदयू को एक सीट भी नहीं दिला सके थे। उन्होंने अभी तक तेज घोड़ों पर दांव लगा कर ही कामयाबी पायी है। किसी चौथे नम्बर की पार्टी को अभी तक जीत नहीं दिला पाये हैं। कांग्रेस ने पीके को लेकर कोई उत्साह नहीं दिखाया है।
नीतीश पर क्या होगा असर ?
प्रशांत किशोर को जितनी इज्जत नीतीश कुमार ने दी, उतनी किसी और नेता ने नहीं। लालू की नापसंदगी के बाद भी नीतीश ने 2015 में प्रशांत किशोर को चुनावी रणनीतिकार बनाया था। जीत से नीतीश इतने खुश हुए कि उन्होंने प्रशांत किशोर को राज्यमंत्री का दर्जा वाला पद दे दिया। वे बिहार से गायब रहे फिर नीतीश ने कुछ नहीं कहा। 2018 में नीतीश ने प्रशांत किशोर को इतना ऊंचा ओहदा दिया कि सभी हैरान रह गये। नीतीश के बाद वे जदयू में नम्बर दो के पायदान पर पहुंच गये। नीतीश ने जदयू का उपाध्यक्ष बना कर चुनावी रणनीतिकार से नेता बना दिया। नीतीश ने उन्हें अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी तक मान लिया था। लेकिन प्रशांत किशोर ने नीतीश से ही लड़ाई ठान ली। आखिरकार उन्हें पार्टी से निकाल दिया गया। वैसे नीतीश कुमार बिना प्रशांत किशोर के भी चुनाव जीत चुके हैं। लोकसभा चुनाव के समय उन्हें दरकिनार कर दिया गया था। पार्टी के फैसलों और टिकट वितरण में पीके केवल मूकदर्शक थे। कई बार ट्वीट कर उन्होंने अपनी अनदेखी पर तंज भी कसा था। लेकिन इसके बावजूद नीतीश कुमार ने लोकसभा चुनाव में जोरदार जीत हासिल की। 2015 में पीके को तब कमायाबी मिली थी जब नीतीश उनके साथ थे। अब उस नीतीश के खिलाफ रणनीत बनानी है जिसका कोई विकल्प ही नहीं है। ऐसे में प्रशांत किशोर को अब तक की सबसे बड़ी चुनौती से जूझना होगा।