छोटे से देश में हिंदी के लिए बड़ा दिल
ये भाषाएं विदेशी यात्रियों की नहीं, बल्कि इजरायल के उन नागरिकों की हैं, जो यहां विश्व के कोने-कोने से आ बसे हैं। इजरायल में हिंदी के प्राध्यापक डॉ. गेनादी श्लोम्पेर के मुताबिक, "वहां की 70 लाख की आबादी में भारतीय मूल के लगभग 70 हजार लोग रहते हैं। उनमें से अधिकांश महाराष्ट्र से गए हैं और मराठी बोलते हैं। अश्दोद, दीमोना, राम्ला जैसे नगरों में मराठी भाषियों की संख्या काफी बड़ी है। वहां जगह-जगह पर हिंदुस्तानी ढंग के रेस्तरां और दुकानें हैं, जहां भारतीय खाना मिलता है, भारतीय फिल्मों और संगीत की सीडी बिकती हैं।"
यह स्वाभाविक है कि यहां से इजरायल गए पूर्व नागरिक भारत से अपने सांस्कृतिक संपर्क बनाए रखे हुए हैं। इजरायली समाज में भी भारत में रुचि रखने वालों की तादाद कहीं ज्यादा है। वर्ष 1926 में येरुशलम के हिब्रू विश्वविद्यालय में अफ्रीकी-एशियाई अध्ययन संस्थान का उद्घाटन किया गया था। शुरुआत में इसका शोध कार्य अरब देशों की परिस्थितियों पर केंद्रित था, लेकिन समय के साथ-साथ विद्वानों का ध्यान दक्षिणी एशिया और पूर्वी ऐशिया के देशों की ओर भी गया।
डॉ. गेनादी मानते हैं कि दुनिया में भारत को चमत्कारों का देश माना जाता है। इसी विचार ने इजरायल के नए विद्वानों को भी प्राचीन भारत की समृद्ध संस्कृति को ढूंढने और समझने के लिए प्रेरित किया। जिन विद्वानों ने इजरायल में भारत-विद्या की नींव रखी और इसको आगे बढ़ाया, उनमें प्रो. डेविड शुल्मन, प्रो.शऊल मिग्रोन और प्रो.व्लादिमीर सिरकिन प्रमुख हैं।
भारत के धर्म-दर्शन, प्राचीन साहित्य और प्राचीन भाषाएं काफी दिनों तक उनके शोध के विषय रहे। मगर विद्यार्थियों की रुचि देखकर और दोनों देशों के बीच राजनीतिक संबंधों की स्थापना के बाद वे मान गए कि भारतीय संस्कृति का अध्ययन करते हुए उसके इतिहास और लोगों की वर्तमान स्थिति की उपेक्षा नहीं की जा सकती।
अफ्रीकी-एशियाई अध्ययन संस्थान के भारतीय विभाग में भारत से जुड़ी नई-नई बातों का पठन-पाठन शुरू हुआ। फिर यह सिलसिला आगे बढ़ता गया। सच तो यह है कि यहां हिंदी का प्रचार-प्रसार करने के लिए किसी पर दबाव डालने की जरूरत नहीं पड़ती। प्राचीन संस्कृति वाली एक बड़ी ताकत की राष्ट्रीय भाषा होते हुए हिंदी इजरायल में खुद अपना महत्व साबित करती है।
इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।