कब होगी पाक अधिकृत कश्मीर की मुक्ति?
26 अक्टूबर को जम्मू-कश्मीर के देशभक्त लोग हर बरस विलय दिवस मनाते हैं। इसी रोज 1947 में यहां के तत्कालीन शासक महाराजा हरि सिंह ने अपनी रियासत के भारत में विलय के लिए विलय-पत्र पर दस्तखत किए थे। गवर्नर जनरल माउंटबेटन ने 27 अक्तूबर को इसे मंजूरी दी। विलय-पत्र का खाका हूबहू वही था जिसका भारत में शामिल हुए अन्य सैंकड़ों रजवाड़ों ने अपनी-अपनी रियासत को भारत में शामिल करने के लिए इस्तेमाल किया था। न इसमें कोई शर्त शुमार थी और न ही रियासत के लिए विशेष दर्जे जैसी कोई मांग।
इस
वैधानिक
दस्तावेज
पर
दस्तखत
होते
ही
समूचा
जम्मू
कश्मीर
,जिसमें
पाकिस्तान
के
अवैध
कब्जे
वाला
इलाका
भी
शामिल
है,भारत
का
अभिन्न
अंग
बन
गया।
भारत
में
जम्मू
कश्मीर
के
विलय
से
संबंधित
दस्तावेजों
में
यह
सर्वाधिक
वजनदार
और
मौलिक
दस्तावेज
हैं।
राज्य
में
इसके
बाद
के
घटनाचक्र
और
भारत
के
साथ
उसके
रिश्तों
पर
जितने
भी
सवाल
रह
रह
कर
उठते
रहे
हैं,
यह
दस्तावेज
उनका
सच्चा
और
सटीक
उत्तर
है।
भारतद्रोहियों
व
पाकपरस्तों
के
पास
इसकी
कोई
काट
नहीं।
विलय दिवस के अवसर पर 1947 में विभाजन के समय के घटनाचक्र पर एक निगाह डाल लेना भी ठीक रहेगा। दो सौ बरस भारत को लूटने के बाद फिरंगी अपना यूनियन जैक लपेट कर लंदन लौटने जा रहे थे। लाल किले पर पंद्रह अगस्त को तिरंगी पताका फहराने के बाद देश आजादी के जश्न में मग्न था। उधर, देश का एक बड़ा हिस्सा बंटवारे की उस विभीषिका से रूबरू हो रहा था,जिसमें भागते लुटेरों की भांति फिरंगी जाते जाते भारतभूमि को झोंक गए थे। अपने सीधे नियंत्रण वाले भारत के भाग यानि ब्रिटिश को उन्होंने बरसों पहले अपनी चतुराई से चली चाल के आखिरी चरण के रूप में मजहबी आधार पर बांट दिया था। परंतु ब्रिटिश इंडिया के दायरे से बाहर सैंकड़ों रजवाड़ों के मातहत भी तो भारत बिखरा पड़ा था। इन रजवाड़ों को उन्होंने अपना भविष्य कुछ नियमों के दायरे में खुद तय करने के लिए अधिकृत कर दिया था। इसके पीछे भी फिरंगी की मंशा यही थी कि उनके लौटने के बाद यहां अव्यवस्था, बिखराव और अराजकता का माहौल कायम रहे।
खैर,भारत के साथ जिन रियासतों और रजवाड़ों को जुड़ाव संभव था,उन्हें सरदार पटेल ने बहुत कायदे से संभाल लिया। साम-दाम-दंड-भेद ,जिस भी उपकरण की आवश्यकता पड़ी, पटेल ने उसका उपयोग करते हुए मौजूदा भारत को दुनिया के मानचित्र पर उकेरने में ऐतिहासिक काम किया। मगर जम्मू कश्मीर के संदर्भ में ऐसा नही हुआ। इसकी एक वजह यह भी मानी जाती है कि पंडित नेहरू जम्मू कश्मीर के मामले में व्यक्तिगत तौर पर बहुत रूचि रखते थे। अन्य कारणों में रियासत की भौगोलिक और आतंरिक स्थितियों को शुमार कर सकते हैं। जम्मू कश्मीर एक बड़ा राज्य था जिसकी सीमाएं पांच देशों को छूती थीं। यहां अधिक आबादी मुस्लिम थी और राजा हिंदू था। रियासत के अलग अलग हिस्सों, मसलन गिलगित बाल्टिस्तान,कश्मीर, जम्मू और लद्दाख के लोगों की आकांक्षाएं भी भिन्न भिन्न थी। महाराजा को इनके बीच संतुलन कायम करते हुए निर्णय लेना था। इस वजह से वे पंद्रह अगस्त तक कोई निर्णय नहीं ले सके।
लिहाजा,उन्होंने 14 अगस्त को भारत और पाकिस्तान दोनों को अलग अलग यथास्थिति समझौते के प्रस्ताव भेजे। पाकिस्तान के साथ वे अंतिम निर्णय होने तक यातायात और संचार के संबंध कायम रखने के साथ अनाक्रमण की संधि चाहते थे। पाक ने इसे तत्काल मान लिया चूंकि उसके हुकमरानों को लगता था कि ब्रिटेन के दबाव में महाराजा आखिर पाकिस्तान में विलय को राजी हो जाएंगे। भारत को हरि सिंह ने यथास्थिति समझौते का जो प्रस्ताव भेजा उसमें भारत के साथ उन्हीं संबंधों को कायम रखने की बात कही गई थी जैसे कि उनके ब्रिटिश इंडिया के साथ थे। भारत ने यह कह कर इस प्रस्ताव को ठंडे बस्ते में डाल दिया कि हम परस्पर बातचीत के बाद ही ऐसा कोई करार करेंगे। पर इस बातचीत के लिए कोई पहल दिल्ली ने की नहीं। इसके बावजूद महाराजा भारत के नेतृत्व के साथ रियासत के भविष्य को लेकर लगातार विमर्श कर रहे थे।
चूंकि महाराजा के प्रति पंडित नेहरू का रवैया दोस्ताना कभी नहीं रहा था और वे विलय से पहले जेल में बंद अपने मित्र शेख अब्दुल्ला को रियासत की सत्ता में साझीदार बनाने पर अडे़ थे, इसलिए महाराजा ने इस दिशा में भी पहलकदमी की। शेख को सितंबर में जेल से रिहा कर दिया गया। पाकिस्तान को जम्मू कश्मीर हाथ से खिसकता नजर आने लगा तो बौखलाहट में उसने 22 अक्तूबर को कबाइलियों के वेश में फौज भेज कर जम्मू कश्मीर पर आक्रमण कर दिया। पाकिस्तानियों ने रियासत में जो कत्लोगारत मचायी उसका सामना करने में महाराजा की फौज को दिक्कत आनी ही थी। उन्होंने भारत से मदद मांगी। दिल्ली ने विलय से पूर्व सेना भेजने से इनकार कर दिया तो महाराजा ने विलय-पत्र पर दस्खत कर दिल्ली भिजवा दिया। इसके साथ ही हरि सिंह ने शेख को आपातकालीन सरकार का मुखिया भी बना दिया।
26 अक्तूबर को विलय पत्र पर महाराजा के दस्तखत हुए। 27 को माउंटबेटन की कलम चली और इसी दिन भारतीय फौज संकटग्रस्त कश्मीर में दाखिल हुई। जिस दिन भारतीय फौज वहां पंहुची, उस दिन वह भारतीय जम्मू कश्मीर था। उस रोज तक राज्य की लगभग साढे़ चार हजार वर्ग किलोमीटर जमीन पर ही पाकिस्तानी काबिज हो पाए थे। मगर विलय से पहले चूकी दिल्ली विलय के बाद भी बहुत चौकस नहीं हुई। दिल्ली ने कायदे से मामले को संभाला होता तो पाकिस्तानी फौज की बढ़त को तत्काल रोका जा सकता था। बाद में हमलावर पाकिस्तान को पूरी तरह बाहर खदेडे़ बिना युद्धविराम की बात भी दिल्ली की बड़ी भूल थी।
जम्मू कश्मीर के मोर्चे पर भारत ने देशविभाजन से लेकर आज तक कई रणनीतिक गलतियां कीं। यह सिलसिला अभी जारी है। इस पर अलग से चर्चा फिर कभी करेंगे। मगर विलय दिवस की पृष्ठभूमि में यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि जम्मू कश्मीर को लेकर दिल्ली से जितनी भूलें हुई, उतने ही भ्रम भी अपनों और परायों ने फैलाए। उनमें से पहला भ्रम यह है कि राज्य का भारत में विलय सर्शत था। हकीकत यह है कि भारत में विलीन हुई तमाम रियासतों को विलय बिना शर्त हुआ। सर्शत विलय का तो कोई प्रावधान ही नहीं था। दूसरा भ्रम यह कि महाराजा ने विलय में देरी की। वस्तुतःमहाराजा हरि सिंह रियासत की स्थितियों के अनुसार सबसे विमर्श कर उसे भारत में मिलाना चाहते थे। उन्होंने वैसा ही किया भी। फिर विलय के लिए कोई अंतिम तारीख भी तो निर्धारित नहीं थी। ऐसे में देरी की बात ही बेतुकी है।
तीसरा भ्रम यह फैलाया जाता है कि भारत में राज्य का विलय अंतिम और पूर्ण नहीं है।वस्तुस्थिति यह है कि तमाम तकनीकी और कानूनी पक्षों के दृष्टिगत विलय निर्विवाद, वैधानिक और संपूर्ण है। बाद में राज्य की निर्वाचित संविधान सभा ने इसका अनुमोदन किया और यह भी कहा कि इस पर पुनर्विचार नहीं हो सकता। तथ्य यह है कि विलय पर फैसला लेने का हक केवल और केवल महाराजा को था। उन्होंने विधिवत इस काम को अंजाम भी दिया। रही बात बाद में मामले के यूएनओ में जाने की और इस संबंध में यूनाइटेड नेशन्स के कुछ प्रस्तावों की, तो अपने जन्म से लेकर आज तक जम्मूकश्मीर हड़पने के लिए जीभ लपलपा रहे पाकिस्तान समेत सारी दुनिया को पता है कि उन तथाकथित प्रस्तावों की कोई महत्ता और उपयोगिता नहीं है।
हां,राज्य
के
भारत
के
साथ
एकीकरण
के
मामले
में
अगर
कोई
अधूरा
काम
बचा
है
तो
वह
है
पाक
और
चीन
के
अवैध
कब्जे
वाली
हमारी
जमीन
और
जनता
की
मुक्ति
का
कार्य।
हमारी
संसद
1994
में
सर्वसम्मत
प्रस्ताव
पास
कर
यह
बात
दुनिया
को
बता
चुकी
है।
रक्षा
मंत्री
एंटनी
ने
कुछ
हफ्ते
पहले
कुछ
ऐसे
ही
शब्दों
में
संसद
के
संकल्प
को
दोहराया
भी
था।
अब
यह
काम
कूटनीति
से
हो
या
किसी
अन्य
तरीके
से,
यह
देश
के
नेतृत्व
को
तय
करना
है।
-
लेखक
जम्मू
कश्मीर
मामलों
के
अध्येता
हैं