स्कूलों में पिज्जा, बर्गर की बिक्री पर लगे रोक : विशेषज्ञ
विशेषज्ञों का कहना है कि चिप्स, बर्गर, समोसा, नूडल्स जैसी खाने-पीने की चीजें धड़ल्ले से स्कूलों के कैंटीन और उसके आसपास बिकती हैं। उच्च वसा वाले इन खाद्य पदार्थों के अधिक सेवन से बच्चों में इससे जुड़ी बीमारी होने का जोखिम बढ़ जाता है।
ऐसे में बच्चों के बेहतर स्वास्थ्य एवं पोषण के लिये स्कूलों और उसके आसपास बिकने वाले जंक फूड पर रोक लगाने तथा स्वास्थ्य मानक तय करने की जरूरत है।
एसोचैम स्वास्थ्य कमेटी के चेयरमैन तथा सर गंगाराम हास्पिटल से संबद्ध डाक्टर बी के राव का कहना है, बच्चे ज्यादा समय स्कूल में बिताते हैं। वह बहुत कुछ स्कूल कैन्टीन या आसपास की दुकानों से खरीदते हैं। ऐसे में माता-पिता के साथ स्कूल प्रबंधन को अपने कैन्टीन से अनुरोध करना चाहिए कि वे जंक फूड की बजाए दूध से बनी एवं अन्य स्वास्थ्यवद्र्धक खाने-पीने की चीजें बेचे।
इस बारे में अखिल भारतीय आयुर्विग्यान संस्थान में काम कर चुके चिकित्सक विकास कुमार ने भी कहा, निश्चित रूप से स्कूलों के कैंटीन में पिज्जा, बर्गर जैसे जंक फूड की बिक्री पर रोक लगनी चाहिए और उन्हें कम वसा और कम चीनी वाली ऐसी चीजें बेचने के लिये प्रोत्साहित करना चाहिए जो बच्चों के स्वास्थ्य के लिहाज से बेहतर हो।
बी के राव ने कहा, बच्चों में मोटापा बढ़ रहा है और शारीरिक मेहनत वाले खेल-कूद कम हो रहे हंै। ऐसे में जरूरी है कि स्कूल कैन्टीन स्वास्थ्यवर्धक तथा पोषक खाद्य पदार्थ उपलब्ध करायें।
विशेषज्ञों के अनुसार काम को लेकर व्यस्तता के कारण अनेक परिवार घरों में खाना पकाने की बजाए बाहर के खाने को तरजीह देते हैं। साथ ही बर्गर, पिज्जा जैसी खाने-पीने की चीजें सस्ती और आसानी से उपलब्ध है।
बच्चे घरों के बाहर खेलने की बजाए टेलीविजन देखने में, वीडियो गेम्स तथा कंप्यूटर पर ज्यादा समय बिताते हैं। इससे जंक फूड का प्रचलन ज्यादा बढ़ रहा है। ऐसा माना जाता है कि अमेरिका स्थित सेन्टर फार साइंस इन द पब्लिक इंटरेस्ट के निदेशक माइकल जैकबसन ने 1972 में ऐसे खाद्य पदार्थों को जंक फूड का नाम दिया था जिससे वसा तथा कैलोरी अधिक तथा पोषण तत्व कम होता है।
स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं के बावजूद इस क्षेत्र में सालाना करीब 30 प्रतिशत वृद्धि हो रही है। एसोचैम के महासचिव डी एस रावत ने कहा, फिलहाल फास्ट फूड का बाजार 16 अरब डालर का है और इसमें सालाना 30 से 35 प्रतिशत वृद्धि हो रही है। इस हिसाब से इसके 2015 तक 35 अरब डालर हो जाने का अनुमान है।