अमन कश्ती को डल में डुबोने की ना-पाक साजिश
पहली घटना पवित्र पीर दस्तगीर दरगाह के खाक होने की है। दरगाह पुराने श्रीनगर शहर में है। लगता है कि घाटी से सैलानियों की लंबी कतारों और शहरे खास तक उनकी पंहुच बात जैसे ही भारतीय मीडिया में आईं, इस्लामाबाद ने अपने एजेंटों की पूंछ दबा कर उन्हें उछलने और तुरंत कुछ न कुछ के लिए विवश कर दिया। फिर एक सुबह एकाएक पुराने श्रीनगर शहर में स्थित इस प्राचीन पीर दस्तगीर दरगाह आग की लपटों में समा गई।
आग
लगने
की
असली
वजह
राम
जाने
कभी
सामने
आएगी
या
नहीं।
मगर
परिस्थितियां
संकेत
करती
हैं
कि
यह
आग
कहीं
न
कहीं
शांति
बहाली
की
डगर
पर
चल
निकली
घाटी
को
फिर
से
बेहाल
करने
की
व्यापक
पाकिस्तानी
साजिश
का
ही
एक
हिस्सा
होगी।
घाटी
सुलगती
रहे,
इसमें
सबसे
अधिक
फायदा
पाकिस्तान
का
ही
है,
यह
बात
भला
कौन
नहीं
जानता।
दरगाह
की
आग
पर
रोटियां
सेंकने
के
लिए
अलगाववादी
अपनी
अपनी
मांद
से
निकले
अवश्य
मगर
जल्द
वापस
लौट
गए
चूंकि
आम
कश्मीरी
बेवजह
घाटी
को
फिर
किसी
आंदोलन
की
भट्टी
में
झांेकने
के
मूड
में
नहीं
थे।
इसकी
वजह
साफ
है।
आंदोलन
का
मतलब
होता
सैलानियों
के
सैलाब
का
थमना।
इसका
सीधा
संबंध
आम
कश्मीरी
की
रोजी-रोटी
से
है,
जो
उन्हें
न
आंदोलन
से
मिलनी
थी
और
न
अलगाववादियों
के
पुराने
हथकंडों
से।
मगर सरहद पार बने विघटनकारियों के नियंत्रण कक्ष को श्रीनगर का यह मूड शायद पचा नहीं। दरगाह के दहन से उपजी गरमाइश से घाटी अभी निकल ही रही थी कि कट्टरवादी जमावडे जमाते-इस्लामी का एक डरावना फतवा आ गया। जमात ने कहा कि घाटी में देसी-विदेशी महिला सैलानियों को मिनी स्कर्ट डाल कर घूमने नहीं दिया जाएगा चूंकि यह वहां की संस्कृति के खिलाफ है। इस सवाल पर बहस हो सकती है कि पश्चिमी परिधान कश्मीर की संस्कृति से मेल खाता है या नहीं।
मगर सैलानियों के लिए वेश-कोड जारी करने और सांस्कृतिक थानेदारी करने का अधिकार जमात को भला किस ने दे दिया? तय मानिए कि आम कश्मीरी के पेट पर लात मारने वाली यह घुड़की और इसका समय श्रीनगर में नहीं इस्लामाबाद में तय हुआ होगा। हालांकि जमाते इस्लामी जल्द ही यह कहते हुए बचाव की मुद्रा में आ गई कि उसका घाटी में कोई वेश-कोड जबरन लागू करने का इरादा नहीं है मगर माहौल में कड़वाट घोलने का पाकिस्तानी एजेंडा तो जमात ने सिरे चढ़ा ही दिया।
घाटी में अमन बहाली के ‘ अंदेशे ' से असहज पाकिस्तान और उसके हिंदुस्थानी गुर्गों की धुकधुकी इतने से भी नियंत्रित नहीं हुई तो हुर्रियत के अतिवादी गुट के वयोवृद्ध नेता सैयद अली शाह गीलानी से एक शिगूफा छुड़वा दिया गया। दो जुलाई को दिल्ली में पाकिस्तानी उच्चायोग में जलील अब्बास के संग बिरयानी उड़ाने के लिए श्रीनगर से उड़ान भरने से पहले गीलानी मीडिया से रूबरू हुए। पत्रकार वार्ता में गीलानी ने कहा कि घाटी में पंडितों की वापसी के लिए वे किसी भी सूरत में अलग से बस्तियां नहीं बसने देंगे। पंडितों को लौटना है तो मुसलमानों के बीच अपने पुराने ठिकानों में आकर बसें।
पाकिस्तानी विदेश सचिव के साथ मुलाकात से ठीक एक रोज यह कहकर गीलाली ने भले ही यह संदेश देने का प्रयास किया कि उनके इस ताजा नाटक की पटकथा इस्लामाबाद ने नहीं लिखी। परंतु जगजाहिर है कि गीलानी का एजेंडा, उसकी शब्दावली,उसके मुहावरे और व्याकरण तक को अंतिम रूप इस्लामाबाद ही देता है। और गीलानी तो खुद सार्वजनिक मंचों से 'हम हैं पाकिस्तानी, पाकिस्तान हमारा है' का नारा बुलंद करते रहे हैं। लिहाजा, इसमें कोई संदेह नहीं कि पंडितों को कश्मीरी समाज और संस्कृति का अभिन्न अंग बताने का पाखंड रचने वाले गीलानी-कुल के लोगों को पंडितों की घाटी में वापसी कतई स्वीकार नहीं है। इसके कारण भी सीधे-सपाट हैं। पाकिस्तान और पाक-परस्त तत्वों के लिए कश्मीरी पंडितों की घाटी में वापसी का अर्थ घाटी में भारत-भक्तों का मजबूत और प्रभावशाली होना है। भारत मां की जय बोलने और तिरंगा उठाने वालों की संख्या घाटी में बढाने वाला कोई प्रयास या घटनाक्रम भला उन्हें हजम कैसे हो सकता है?
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि गीलानी ने पंडितों के लिए अलग से बस्तियां बसाए जाने का विरोध करते हुए नितांत बेतुकी दलीलें दी हैं। गीलानी को इस तरह के किसी भी प्रस्ताव में इजरायल और मोस्साद का भूत दिखता है। हुर्रियत के इस बूढे़ शेर का कहना है कि ऐसी कॉलोनियां बसाकर भारत सरकार घाटी में फिलिस्तीन जैसी स्थिति पैदा करने की साजिश कर रही है। बकौल गीलानी इन कालोनियों में दिल्ली अर्थात भारत सरकार संघ परिवार के लोगों को बसाने की तैयारी कर रही है। केंद्र की कांग्रेसनीत सरकार जिस संघ और उसके सहयोगी संगठनों को चिमटे से भी छूने को तैयार नहीं, उसके साथ केंद्र के तालमेल का आरोप किसी को भी चौकाने और हंसाने के लिए काफी है।
प्रतीत होता है कि गीलानी अपने पांवों के तले से खिसकती लोगों के समर्थन की जमीन और दूसरी ओर इस्लामाबाद से आए दिन मिलने वाली हिदायतों के दबाव में बौखला गए हैं। वरना गीलानी बताएं कि दो दशक से अधिक समय से अपने घरों से दूर अमानवीय स्थितियों में जीवनयापन कर रहे लाखों कश्मीरी विस्थापितों की घाटी में वापसी को यूं रोकने वाले वे होते कौन हैं? विस्थापितों को अपनी धरती पर लौटने का संवैधानिक व मानवीय अधिकार है।
कट्टवादी जेहादियों की संगीनों से भयाक्रांत हो अपने घरों और स्थापित कारोबार को छोड़कर अपने ही प्रदेश-देश में शरणार्थी बने पंडितों को भारतीय कानून और संबंधित अंतरराष्टीय कन्वेंशनों के तहत यह तय करने का भी हक है कि वे घाटी में घर वापसी किन शर्तों व स्थितियों में करेंगें। कश्मीर के स्टेट-सबजेक्ट होने के कारण वे राज्य में कहीं भी बसने के लिए जगह चुन सकते है। उन्हें असुरक्षित ठिकानों पर लौटने के लिए तो कतई विवश नहीं किया जा सकता। पंडितों के लिए अलग टाउनशिप बसाने की मांग या प्रस्ताव में ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे किसी हिंदुस्थानी की परेशानी बढे़।हां, पाक-परस्तों के लिए यह पीड़ादायक होगा ही चूंकि उनका अंतिम लक्ष्य घाटी को भारत-भक्तों से विहीन करना है।
खैर,जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने अपने ही अंदाज में गीलानी की बेतुकी बातों का मखौल उड़ाया है। उमर ने ट्वीट किया है कि अस्सी की उम्र पार करने के बाद भी गीलानी की कपोल कल्पनाएं करने की क्षमता में कोई कमी नहीं आई। मगर अभी यह भी साफ नहीं है कि खुद उमर सरकार पंडितों की घर वापसी के प्रति कितनी गंभीर है। उमर सरकार पर भी तो खुद को विस्थापितों के लिए केवल जुबानी सहानुभूति रखने तक सीमित करने के आरोप लगते रहे हैं। फिलवक्त डल झील में अमन की नैया को डांवांडोल करने की साजिशें चरम पर हैं। कश्ती को किनारा मिलेगा या वह डूबेगी, आज कह पाना कठिन है।
लेखक- सिरसा, हरियाणा के वरिष्ठ पत्रकार एवं शिक्षाविद हैं।