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कश्‍मीर मुद्दे पर घुटने टेकना स्‍वीकार नहीं

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Indian Army
कश्‍मीर पर तैयार की गई रिपोर्ट के दूसरे अध्याय में 18 वें बिंदु में तो वार्ताकार संभवतः अपने क्षेत्राधिकार और सीमाओं को भी लांघ गए। तिकड़ी ने लिखा है कि कश्मीर पर भारत-पाकिस्तान की परस्पर समझ दोनों देशों के लिए विजयी भाव लाने वाली होनी चाहिए खासकर जम्मू कश्मीर की पूर्ववर्ती रियासत के उनके प्रशासन वाले इलाकों में उनकी संप्रभुता और सुरक्षा चिंताओं के संदर्भ में। सीधे-सपाट शब्दों में कहना हो तो वार्ताकार जम्मू कश्मीर के पाक अधिकृत हिस्सों में पाकिस्तान की संप्रभुता को स्वीकार करने की बात कर रहे हैं।

भारत सरकार, भारत की संसद और भारतीय जनमानस ने आज तक तो इसे स्वीकार नहीं किया। आज या भविष्य में भी इस प्रकार की घुटना-टेकू स्थिति को कम से कम भारतीय जनमानस तो स्वीकार नहीं करेगा। ऐसा करना जम्मू कश्मीर में पाकिस्तान की अवैध मौजूदगी को वैधानिकता प्रदान करना होगा और इससे अलगाववादियों और भारतविरोधी ताकतों को बल मिलने के साथ सामरिक दृष्टि से अहम जम्मू कश्मीर में भारत की स्थिति और कमजोर पडे़गी।

यहां पर यह पड़ताल करना आवश्यक हो जाता है कि पाक अधिकृत कश्मीर के मामले में भारत का आधिकारिक रूख भी कहीं हमारी सरकार देश की संसद और लोगों को विश्वास में लिए बगैर बदलने तो नहीं लगी है? जानकारों का कहना है कि वस्तुतः ऐसा ही हो रहा है। अज्ञात अंतरराष्‍ट्रीय दबावों के चलते भारत सरकार कहीं न कहीं दशकों पुराने और कानून-सम्मत भारतीय रुख को धीरे-धीरे बदल रही है।

यह काम इतनी सहजता से और सलीके से किया जा रहा है कि आमजन इस बारे में अधिक सतर्क भी न हो। भारत-पाकिस्तान के बीच कूटनीतिक वार्ताओं के दौर में वर्ष 2007 में जिस कथित कश्मीर करार पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और परवेज मुशर्रफ के बीच दस्खत होते होते रह गए थे, उसमें भी संभवतः यही सब अंतर्निहित था। यह भी कहा जा रहा है कि वार्ताकारों की नियुक्ति और उनकी सिफारिशें मनमोहन-मुशर्रफ करार के लिए हुए वार्ताओं के दौरान कथित वैश्विक दबावों में भारत सरकार द्वारा दी गई कुछ सहमतियों को अमली जामा पहनाने की कवायद मात्र है। अभिप्राय यह कि सब कुछ एक पूर्व नियोजित कार्यक्रम और पहले से लिखी जा चुकी पटकथा के अनुरूप हुआ है और हो रहा है। यदि वास्तव में ऐसा है, तो यह अत्यंत चिंताजनक बात है।

राष्ऊþीय हितों के साथ इस तरह चतुराई से खिलवाड़ करने की इजाजत किसी को नहीं दी जा सकती। समय आ गया है कि भारत की सोई संसद जागे और देखे कि पाक अधिकृत कश्मीर के बारे में उसके अपने प्रस्ताव की भावना को किस तरह चिंदी चिंदी किया जा रहा है। संसद और सांसदों को दलगत राजनीतिक और चिंतन से परे हट कर यह भी देखना, सोचना और समझना होगा कि वार्ताकारों की रिपोर्ट केवल पाक अधिकृत कश्मीर पर भारतीय संसद की भावनाओं पर सीधी चोट नहीं करती।

रिपोर्ट में तो यहां तक सिफारिश की गई है कि 1952 के बाद जम्मू कश्मीर में लागू किए गए तमाम भारतीय कानूनों की समीक्षा की जाए और भविष्य में हमारी संसद बाहरी और आंतरिक सुरक्षा से जुडे़ मामलों को छोड़कर अन्य मामलों में जम्मू कश्मीर के बारे में कानून ही न बनाए। इसे जम्मू कश्मीर के संदर्भ में भारतीय संसद के हाथ-पांव काटने की सिफारिश के रूप में भी देखा जा सकता है। वार्ताकारों की बोली में देशविरोधी शब्दावली इस बात का प्रमाण है कि कहीं न कहीं कोई देशघातक खिचड़ी पक रही है।

पाक समर्थक पाकशाला में कौन कौन इस खिचड़ी को पकाने में जुटे हैं और यह किन वैश्विक दबावों में पकाई जा रही है, इस पर चर्चा, बहस और इसे बेपर्दा करने का काम स्वयं भारत की सबसे बड़ी पंचायत अर्थात संसद में ही होना चाहिए। कायदे से यह विमर्श संसद से प्रारंभ होकर भारत के गली-कूचों तक जाना चाहिए चूंकि मामला देश की एकता और अखंडता से जुड़ा है और लग यूं रहा है कि दिल्ली दरबार जम्मू कश्मीर को अपने करीब लाने के बजाय उससे भारत की दूरियां बढ़ाने की दिशा में कदम बढ़ा रहा है।

कैसी विडंबना है कि शेष भारत देश के एक अरब से अधिक लोगों के लिए जो कानून अच्छे और कल्याणकारी हैं, एक राज्य के संदर्भ में उनकी गुणवत्ता और उपयोगिता पर ही सवाल खडे़ करने का प्रयास हो रहा है और हमारी ही सरकार द्वारा गठित वार्ताकार समूह देशघातक सिफारिशों के पुलिंदे में जम्मू कश्मीर में अलगाववाद को और पुष्ट करने वाली बातें कह रहा है।

(लेखक मीडिया शिक्षक व स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं. इ-मेल chauhan @jansanchaar .in)

English summary
India and Pakistan both are fighting for Kashmir for long time, but no solution has came up till now. In every summit both raises same issue but no fruitful talk use to be happened.
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