नहीं रहे उमराव के दर्द को लिखने वाले 'शहरयार'
परिवार में उनकी पत्नी, दो बेटे और एक बेटी है। प्रो. शहरयार एएमयू के उर्दू विभाग के चेयरमैन भी रहे। उमराव जान, गमन आदि फिल्मों में यादगार गीत लिखने वाले शहरयार को कुछ दिनों पहले ही दिल्ली में ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजा गया था। शहरयार ने फिल्मों के गीतों में भी उर्दू गजल के मिजाज को जिंदा रखा। शहरयार पिछले कई महीने से सबको बताते रहे कि थोड़ी तबियत नासाज है और बेटे के पास दुबई में रह रहे थे। समय बीता और एक कड़वा सच सामने आया।
पता लगा कि शहरयार गंभीर बीमार हैं, मगर अस्पताल में भर्ती होने पर भी वे नहीं चाहते थे कि इसका पता किसी को लगे। वे अखबारों में अपनी फोटो नहीं छपवाना चाहते थे। वे पुरानी फोटों ही छापने की गुजारिश करते थे। वे नहीं चाहते थे कि दुनिया उनकी शरीऱ की बदहाली देखे। ब्रेन ट्यूमर जिस तरह इंसान को घोलता है, शहरयार साहब को भी घोलता गया।
एएमयू में 15 अगस्त की पूर्व संध्या पर मुशायरे के आयोजन में शहरयार ने अपना शेर पेश किया तो चाहने वालों की आंखें नम हो गईं। ऐसा जान पड़ा मानो वे अपना आने वाला कल खुद पढ़कर सुना रहे हों। प्रो. शहरयार के इंतकाल की खबर सुन कर उनके उस्ताद प्रो. काजी अब्दुल सत्तार स्तब्ध रह गये। बोले-एक साल से उनकी बीमारी से मन व्यथित था। कभी-कभी लगता था कि पता नहीं कब क्या हो जाये? 1957 में जब मैं एएमयू के उर्दू विभाग में पढ़ाया करता था। उस वक्त शहरयार के साथ राही मासूम रजा भी उसी क्लास में थे। उन दोनों का साहित्य के प्रति झुकाव शुरू से ही था। एक वक्त था जब दोनों को क्लास में एक साथ देख कर दिल खुश होता था। फिर सब अलग-अलग हुए और मंजिलें अलग हो गईं। शहरयार यहीं पर अलीगढ़ में रहे तो मिलना-जुलना जारी रहा। आखिरी बार 20 रोज पहले मैं उनका हाल जानने उनके घर पहुंचा था। वह ज्यादा कुछ बोलते नहीं थे। मैं भी बड़ा हायपरसेंसटिव हूं।
मुझसे अपने लोगों का दर्द नहीं देखा जाता है। इसलिए मैं ऐसे वक्त में ज्यादा किसी के साथ नहीं रह पाता हूं। यह मेरी खराब आदत है। एक वाकया याद है जब प्रो. शहरयार और उनकी पत्नी के बीच अनबन हुई तो उन्होंने मुझसे कहा था कि मैं उनकी पत्नी को समझाऊं। मैंने इसके लिए प्रयास भी किया लेकिन बात नहीं बनी..। वो अखिर तक नहीं बनी। शहरयार ने एक इंटरव्यू में कहा था कि मैं उसे हम हमेशा के लिए भूल जाना चाहते हैं। शहरयार का पूरा नाम कुंवर अख़लाक़ मुहम्मद ख़ान था, लेकिन इन्हें इनके तख़ल्लुस या उपनाम 'शहरयार' से ही पहचाना जाना जाता था।
वह गर्व से कहते थे मैं मुसलिम राजपूत हूं। राजपूत होने का उन्हे बड़ गर्व था। 1961 में उर्दू में स्नातकोत्तर डिग्री लेने के बाद उन्होंने 1966 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में उर्दू के लेक्चरर के तौर पर काम शुरू किया था। वह यहीं से उर्दू विभाग के अध्यक्ष के तौर पर रिटायर हुए। शहरयार ने गमन और आहिस्ता- आहिस्ता आदि कुछ हिंदी फ़िल्मों में गीत लिखे लेकिन उन्हें सबसे ज़्यादा लोकप्रियता 1981 में बनी फ़िल्म 'उमराव जान' से मिली। वर्ष 2008 के लिए 44 वें ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजे गए शहरयार का जन्म 16 जून 1936 में बरेली के आंवला में हुआ था।