विश्व एड्स दिवस: आंखें नम कर देगा एड्स पीड़ितों का यह दर्द
एड्स जागरुकता कार्यक्रम में कुछ एचआईवी पीड़ितों ने अपने दर्द बयां किये। सुनकर दिल भर आया। लखनऊ से बाहर स्थित बंथरा में रहने वाली 29 वर्षीय अनुप्रिया यादव (नाम परिवर्तित) की कहानी आपके दिल को कचोट कर रख देगी। अपने ही घर वालों द्वारा घृणित नजरों से देखी जाने वाली अनुप्रिया को अपनी सात वर्षीय बेटे तक से मिलने नहीं दिया जाता है। घर वालों का मानना है कि अनुप्रिया से कहीं उसके बेटे को एड्स न हो जाये, इसलिए उसे उसके पास भटकने तक नहीं देते। जबकि वो मासूम एड्स के बारे में तो कुछ जानता तक नहीं।
वो बच्चा सिर्फ इतना समझता है कि मां की तबियत खराब है। अनुप्रिया की दस वर्षीय बेटी ने बताया कि काफी छुपाने के बावजूद उसके गांव वालों को यह मालूम हो गया कि वह और उसकी मां इस भयावह बीमारी से पीड़ित हैं। गांव वालों ने उसे बिरादरी से अलग कर दिया। अब वह गांव से थोडी दूरी पर सूनसान इलाके में रह रही है। दोनों बच्चों का स्कूल से नाम भी कट गया है। घर और गांव तो दूर यहां डाक्टर भी उससे उपेक्षित व्यवाहर करते हैं।
घायल बेटी के इलाज के लिए भटकती रही मां
कानपुर के रावतपुर की रहने वाली सबीना शेख (नाम परिवर्तित) ने एक दुर्घटना का जिक्र करते हुए बताया कि जीटी रोड पर मार्च 2011 में एक एक्सीडेंट हुआ, जिसमें वो हलकी और उसकी बेटी गंभीर रूप से घायल हो गई। वो दौड़ी-दौड़ी पास के नर्सिंग होम में गई। सबीना ने जाते ही बता दिया कि वो और उसकी बेटी एचआईवी पॉजिटव है, लिहाजा उसी हिसाब से उनका इलाज करें। यह सुनते ही नर्सिंग होम ने सबीना और उसकी घायल बेटी को बाहर का रास्ता दिखा दिया। रोती बिलखती सबीना अगले नर्सिंग होम में पहुंची, वहां भी उसे यही झेलना पड़ा।
बेटी की हालत उससे देखी नहीं गई और तीसरे नर्सिंग होम में उसने एचआईवी का जिक्र तक नहीं किया। नर्सिंग होम ने तत्काल इलाज शुरू किया और उसकी बेटी के हाथ में 9 टांके लगे। जरा सोचिये 9 टांकें मतलब बच्ची के हाथ का मांस तक दिख रहा होगा, लेकिन एचआईवी सुनकर नर्सिंग होम वालों को न तो मांस दिखा और न ही करहाती बच्ची का दर्द।
हालांकि यहां भी सबीना को नर्सिंग होम के डॉक्टर की फटकार सुननी पड़ी, क्योंकि जब बेटी के टांके लग गये तो सबीना ने कहा कि इस्तेमाल किये गये औजान ठीक तरह से स्टरलाइज़ कर लें, क्योंकि उसकी बेटी को एचआईवी है। सबीना ने यह इसलिए बताया क्योंकि रक्त और एचआईवी पेशेंट्स पर इस्तेमाल किये गये औजारों या सिरिंज से एड्स फैलता है। खैर यहां इतनी इंसानियत बाकी थी, कि उसे धक्के देकर बाहर नहीं निकाला गया।
मौत पर भी बातें बनाते हैं लोग
हरदोई के स्वयंसेवी ज्ञानेंद्र सिंह ने जो बताया, वो सुनकर तो आप भी कहेंगे, कि दुनिया में कैसे-कैसे लोग हैं। बड़ा चौराहा के पास रहने वाले ज्ञानेंद्र के पड़ोसी सेवक राम की तबियत अचानक खराब हुई। वो और उसके घर वाले उसे स्थानीय नर्सिंग होम में ले गये। नर्सिंग होम ने सेवक को वेंटीलेटर पर रख दिया। रात भर लाइफसेविंग ड्रग्स दी गईं। सुबह सेवक की मौत हो गई। नर्सिंग होम ने डेथ सर्टिफिकेट देते समय कह दिया कि सेवक को एड्स था।
सेवक के भाई को विश्वास नहीं हुआ, उसने उसका ब्लड सैंपल ले लिया और एक बड़े डायग्नॉस्टिक सेंटर पहुंचा, जहां से रिपोर्ट शाम को मिलनी थी। उधर सेवक के शव को घर लाया गया। लेकिन तब तक एचआईवी की बात पूरे परिवार में फैल चुकी थी। आलम यह था कि सेवक के शव को कोई छूने तक को तैयार नहीं था। सभी को डर था कि कहीं उन्हें भी यह बीमारी न लग जाये। तभी ज्ञानेंद्र व उनके साथियों ने मिलकर सेवक के शव को अंतिम संस्कार के लिए तैयार किया और दाह संस्कार के लिए ले गये। इस दौरान लोग सेवक के बारे में तरह-तरह की बातें बनाते दिखे। कुछ ने कहा, कि सेवक जरूर नशा करता होगा, तो कुछ ने कहा कि अवैध संबंध रखता होगा... लेकिन दाह संस्कार के बाद सेवक के भाई के पास नर्सिंग होम से फोन आया कि उसे एचआईवी नहीं था। वो जब चाहें रिपोर्ट ले जा सकते हैं।
अनुप्रिया और सबीना के जीवन की इन सच्ची घटनाओं को देखते हुए एक ही बात जहन में आती है। वो यह कि सरकार हर साल अरबों रुपए खर्च करती है, फिर भी देश के लोग एचआईवी को न तो ठीक तरह से समझ पाये हैं और न ही उससे बचने के उपाये जानते हैं। रही बात सेवक की तो ऐसे लाखों लोग हैं, जो महज प्राइमरी टेस्ट पर विश्वास करके एड्स पीड़ित से दूरियां बनाने लगते हैं। जबकि मेडिकल साइंस की मानें तो शरीर में अत्याधिक दवाएं जाने से भी कई बार प्राइमरी टेस्ट पॉजिटिव दिखाता है, लिहाजा एचआईवी का सेकेंड्री टेस्ट जरूर करवाना चाहिये।