भोपाल गैस त्रासदी : काम को तरसते खाली हाथ
भोपाल, 12 अगस्त (आईएएनएस)। भोपाल गैस त्रासदी के 25 वर्षो बाद अपनों को खोने और मुफ्त में मिली बीमारियों के जख्म अभी भी कायम हैं। रोटी की भूख ने उनकी जिंदगी को पहाड़ बना दिया है। पीड़ितों की जिंदगी आसान बनाने के मकसद से आर्थिक पुनर्वास के प्रयास सिर्फ कागजों तक सिमट कर रह गए हैं, क्योंकि आर्थिक अवसर मुहैया कराने के लिए शुरू की गई योजनाएं जल्दी ही दफन हो गईं।
भोपाल के लोगों पर काल बनकर आई दो-तीन दिसम्बर 1984 की रात हजारों लोगों को लील गई, लाखों लोगों को जिंदा लाश में बदल दिया। हादसे का शिकार बने लोगों के लिए इलाज के बाद सबसे बड़ी जरूरत थी रोजगार का इंतजाम।
इसके लिए 1985 से शिक्षण-प्रशिक्षण का दौर शुरू हुआ, जो अब भी जारी है। मगर यह कोशिशें कारगर रूप नहीं ले पाईं। यही कारण है कि पेट की आग बरकरार है।
आर्थिक पुनर्वास की जब योजनाएं बनीं तो गैस पीड़ितों की शारीरिक स्थिति का ख्याल रखकर इन्हें बनाई गई थी। ऐसा इसलिए, क्योंकि पीड़ितों की कार्यक्षमता घट गई थी। वे शारीरिक श्रम ज्यादा नहीं कर सकते थे। इसीलिए सिलाई-कढ़ाई के अलावा परंपरागत कला के कम श्रम की प्रशिक्षण योजनाएं शुरू की गईं।
हादसे के बाद के 25 वर्षो के दौरान आर्थिक पुनर्वास पर 27 करोड़ रुपए खर्च किए गए, जिनमें से 5़88 करोड़ रुपए अंतिम 10 वर्षो में 1999 से 2009 के बीच खर्च हुए हैं। यह आर्थिक पुनर्वास के लिए चल रही कोशिशों की रफ्तार का खुलासा करता है।
बीते 25 वषरें में हुई कोशिशों पर गौर किया जाए तो पता चलता है कि गैस पीड़ितों को उनकी शारीरिक कार्य क्षमता के मुताबिक प्रशिक्षण देने के लिए औद्योगिक क्षेत्र बनाए गए। इतना ही नहीं 1987 में गोविंदपुरा औद्योगिक विशेष प्रक्षेत्र का गठन किया गया। ऐसा करने के पीछे मकसद यह था कि इस प्रक्षेत्र में उद्योग लगेंगे और प्रशिक्षण हासिल करने वालों को रोजगार मिलेगा। साथ ही तय किया गया था कि इस प्रक्षेत्र में स्थापित होने वाले उद्योगों में 1990 तक 10 हजार प्रशिक्षित और 1993 तक अप्रशिक्षितों को रोजगार मिलेगा।
औद्योगिक शेड आज भी वीरान पड़े हैं। औद्योगिक प्रक्षेत्र में उद्योग स्थापित नहीं हुए और यह योजना बंद कर दी गई है।
भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन के अब्दुल जब्बार कहते हैं कि प्रदेश सरकार ने आने वाले उद्योगों को न तो रियायत दी और न ही सब्सिडी देने में दिलचस्पी दिखाई। परिणामस्वरूप कोई उद्योग नहीं आए और पीड़ितों को रोजगार की उम्मीद जाती रही।
इसके अलावा महिलाओं को सिलाई कढ़ाई का प्रशिक्षण देने के लिए केंद्र खोले गए, जिन्हें 1992 में बंद कर दिया गया। पीड़ितों के युवाओं को प्रशिक्षित करने के लिए औद्योगिक प्रशिक्षण केंद्र (आईटीआई) की 1994 में स्थापना की गई।
राहत एवं पुनर्वास विभाग के अधीन आने वाले आईटीआई को वर्ष 2004 में मानव संसाधन नियोजन व प्रशिक्षण विभाग को सुपुर्द कर दिया। जब्बार बताते हैं कि इस संस्थान को नेशनल काउंसिल ऑफ वोकेशनल ट्रेनिंग (एनसीवीटी) की मान्यता ही नहीं है। यही कारण है कि यहां से प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद युवाओं को केंद्रीय संस्थाओं मे रोजगार नहीं मिल पा रहा है।
गैस पीड़ितों के पुनर्वास के लिए प्रदेश सरकार ने भोपाल गैस त्रासदी राहत एवं पुनर्वास विभाग बनाया है। इस विभाग की ओर से जो दस्तावेज जारी किए जाते हैं, वे योजनाओं के शुरू करने का खुलासा तो करते हैं मगर यह योजनाएं कब तक चलीं और कितने लोगों को लाभ मिला, इसका कुछ भी अता-पता नहीं।
इन दस्तावेजों में आईटीआई से 11439 युवाओं को प्रशिक्षण मिलने का पता चलता है। इसके अलावा रेलवे कोच फैक्ट्री में 895 प्रशिक्षितों को रोजगार मिलने का दावा किया गया है। इसके अलावा आर्थिक पुनर्वास के लिए प्रयास किस मुकाम पर पहुंचे, इसका कहीं जिक्र नहीं है।
यहां महत्वपूर्ण बात यह है कि अधिकांश योजनाएं सिर्फ कागज तक अथवा बस्ते में बंद हो चुकी हैं। यही कारण है कि विभाग के सचिव एस. आर. मोहंती और संचालक जे. टी. एक्का पुनर्वास के मुददे पर चर्चा के लिए तैयार नहीं हैं। सिर्फ एक जबाव है कि 25 साल में बहुत कुछ किया गया है, मगर उन्हें गिनाना संभव नहीं है।
इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।
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