अफगानिस्तान में भारतीय फिल्मों का 'आधिकारिक बाजार' नहीं
रॉबिन बंसल
नई दिल्ली, 18 अप्रैल (आईएएनएस)। अफगानिस्तान में हिंदी सिनेमा को पसंद करने वालों की तादाद बहुत ज्यादा है लेकिन वहां इसका आधिकारिक बाजार' नहीं है।
अफगानिस्तान में अपनी फिल्म 'काबुल एक्सप्रेस' की शूटिंग करने वाले निर्देशक कबीर खान ने आईएएनएस से कहा, "अफगानिस्तान में लोग हिंदी फिल्मों पर जान छिड़कते हैं। वहां लोग बॉलीवुड की फिल्में देखकर हिंदी सीखते हैं।"
वह कहते हैं कि इतनी लोकप्रियता के बावजूद समस्या सिर्फ इतनी है कि वहां हिंदी फिल्मों को प्रदर्शित करने लिए कोई आधिकारिक व्यवस्था नहीं है। तालिबान के शासनकाल में सिनेमा से संबंधित संपत्तियों को नष्ट कर दिया गया था।
खान कहते हैं कि अफगानिस्तान में ज्यादातर पाइरेटेड फिल्में दिखाई जाती हैं। दरअसल सद्भावना का संदेश देते हुए आमिर खान ने 'लगान' का एक प्रिंट और हमने 'काबुल एक्सप्रेस' का एक प्रिंट वहां भेजा था।
'द तालिबान ईयर्स एंड बियांड' और 'द टाइटैनिक सिंक्स इन काबुल' जैसे वृत्तचित्रों का निर्माण करने वाले खान की वर्ष 2006 में बनी फिल्म 'काबुल एक्सप्रेस' की पूरी शूटिंग अफगानिस्तान में हुई है।
हिंदी फिल्म 'चेज' के प्रचार के सिलसिले में दिल्ली आईं पूर्व मिस अफगानिस्तान विदा सामादजई ने आईएएनएस से कहा, "अफगानिस्तान के लोग बॉलीवुड से बहुत प्यार करते हैं। हमारी संस्कृति यहां से बहुत मिलती-जुलती है। सबसे अच्छी बात यह है कि बॉलीवुड फिल्मों को देखकर हम हिंदी सीख लेते हैं। बॉलीवुड फिल्मों को देखकर मेरी हिंदी 80 फीसदी बेहतर हो गई है।"
तालिबान द्वारा प्रतिबंध लगाने के पहले अफगानिस्तान में हिंदी फिल्मों का बहुत अच्छा कारोबार था।
वर्ष 1994 में विदा पढ़ाई के लिए अफगानिस्तान से अमेरिका चली गईं थी और वहीं बस गईं। वह कहती हैं, "तालिबान शासन और गृह युद्ध से पहले हमारे देश में बाकायदा सिनेमाघर थे। महिलाओं के लिए पहली पंक्ति आरक्षित होती थी। पुरुष इसके पीछे की पंक्तियों में बैठ सकते थे। यह सब बेहद मजेदार था लेकिन तालिबान ने सब कुछ बर्बाद कर दिया।"
गृह युद्ध के दौरान ज्यादातर सिनेमाघर बंद हो गए और जो कुछ बच गए थे उन्हें तालिबान समर्थकों ने जला दिया। वर्ष 2001 में तालिबान शासन के पतन के बाद हालांकि कुछ थियेटरों का उदय हुआ है।
इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।