गóो के नए मूल्य से उत्तर भारत के किसानों को होगा भारी नुकसान
नई दिल्ली, 16 नवंबर (आईएएनएस)। केंद्र सरकार द्वारा गóो मूल्य के लिए 'फेयर एंड रिम्यूनेरेटिव प्राइस' (एफआरपी) तय करने के विरोध में उत्तर प्रदेश के गन्ना किसान एक बार फिर आंदोलन की राह पर हैं। इससे उत्तर भारत के किसानों को भारी नुकसान होने की आशंका है।
इससे पहले सरकार न्यूनतम वैधानिक मूल्य (एसएमपी) तय करती थी। महाराष्ट्र और दक्षिण के राज्यों में गन्ना किसानों को एसएमपी के आधार पर भुगतान मिलता था, जबकि उत्तर भारत के राज्यों में राज्य सरकारें राज्य परामर्श मूल्य (एसएपी) तय करती थीं। पिछले वर्ष केंद्र ने 81.18 रुपये प्रति क्विंटल एसएमपी तय किया था। उत्तर भारत की राज्य सरकारों ने एसएसपी 140 रुपये से से लेकर 170 रुपये प्रति क्विंटल तक तय किया था।
केंद्र सरकार ने 21 अक्टूबर को आवश्यक वस्तु अधिनियम,1955 में संशोधन के लिए एक आध्यादेश जारी कर गन्ना मूल्य के लिए एफआरपी व्यवस्था लागू की। पूरे देश में 9.5 प्रतिशत चीनी रिकवरी पर गन्ना मूल्य 129.84 रुपये प्रति क्विंटल तय किया गया है। चीनी की रिकवरी में प्रति एक प्रतिशत की वृद्धि पर किसानों को 13 रुपये प्रति क्विंटल का अतिरिक्त भुगतान किया जाएगा।
उत्तर भारत के किसानों में असंतोष का कारण यह है कि एसएपी भुगतान के लिए चीनी मिलें अब बाध्य नहीं होंगी और यह राज्य सरकार की मर्जी पर निर्भर करेगा कि वह एफआरपी से अतिरिक्त कीमत चुकाना चाहती है या नहीं। इसके लिए गन्ना नियंत्रण आदेश,1966 में संशोधन किया गया।
राज्य सरकारें चीनी मिलों को होने वाले मुनाफे के आधार पर एसएपी तय करती थीं, इससे किसानों को मुनाफे का उचित हिस्सा एसएपी के रूप में मिलता था। एसएपी के खिलाफ चीनी मिलों ने लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी। परंतु सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने उत्तर प्रदेश के एक मामले में वर्ष 2004 में एसएपी तय करने के राज्यों के अधिकार को सही माना था।
केंद्र सरकार ने एफआरपी इसलिए तय किया है क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने चीनी मिलों की एक याचिका पर वर्ष 2008 में फैसला दिया था कि सरकार एसएपी के आधार पर ही लेवी के तहत मिलों से ली जाने वाली 20 प्रतिशत चीनी का मूल्य चुकाए। अब तक केंद्र सरकार एसएमपी के आधार पर लेवी चीनी का मूल्य चुकाती थी।
मौसम में अंतर के कारण उत्तर भारत की तुलना में महाराष्ट्र में गóो की पैदावार करीब डेढ़ गुना और दक्षिण भारत में दो गुना है। इसके अलावा वहां गóो से चीनी की रिकवरी का प्रतिशत भी अधिक है। इस आधार पर समान क्षेत्रफल में दक्षिण के किसानों की आय उत्तर भारत की तुलना में करीब दो गुनी हो जाएगी। कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि पूरे देश में गóो का समान मूल्य तय करना व्यावहारिक नहीं है।
केंद्र सरकार कई दशकों से गóो के मूल्य को लेकर जारी विवाद का कोई स्थाई समाधान खोजने में अभी तक नाकाम रही है। चीनी की बढ़ी हुई कीमत का लाभ गन्ना किसानों को तो नहीं मिल रहा लेकिन चीनी मिलें भी इससे बहुत फायदे में नहीं हैं। सरकार ने दो चीनी मिलों के बीच न्यूनतम दूरी, लेवी और प्रतिमाह खुले बाजार में चीनी बिक्री का कोटा जैसे कई प्रतिबंध इस उद्योग पर लगा रखे हैं।
सरकार की मंशा अभी भी गन्ना मूल्य का कोई ठोस हल निकालने की नहीं दिखती। चीनी मिलों पर दबाव डालकर सरकार भले ही संसद के शीतकालीन सत्र के आरंभ होने से पहले गóो के मूल्य पर किसानों से समझौता करने में सफल हो जाए लेकिन यदि इसका स्थाई समाधान नहीं खोजा गया तो चीनी उद्योग को भविष्य में दुष्परिणामों के लिए भी तैयार रहना चाहिए। गóो के मूल्य की अनिश्चितता को देखते हुए किसान अन्य फसलों की ओर निश्चित रूप से रुख करेंगे और तब पर्याप्त गóो के बिना मिलों की पूरी पेराई क्षमता का उपयोग भी नहीं हो पाएगा।
इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।
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