भोपाल में बिखरे जनजातीय संस्कृति के रंग

By Staff
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दुनिया के हर हिस्से के जंगल एक से हैं और उनमें बसने वालों की संस्कृति अलग-अलग होने के बावजूद उन्हें एक कतार में खड़ा कर देती है। इन जंगल के मालिकों को हर देश में तथाकथित सभ्य समाज ने पिछड़े का तमगा जो दे दिया है।

जंगल के ये मालिक हर जगह जनजातीय के वर्ग में रख दिए गए हैं। इनकी दुनिया निराली है, मगर कैसी है इसका खुलासा भोपाल में चल रहा जनजातीय फिल्म महोत्सव कर रहा है।

मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल का रवीन्द्र भवन पूरी तरह जनजातियों के गांव में बदल गया है। यहां मादल और ढोल की थाप, बांसुरी की तान और ताल से ताल मिलाती कलाकारों की टोलियां जंगल के लोगों की मस्ती की कहानी सुना रही हैं।

एक तरफ जहां रंगारंग कार्यक्रमों का दौर जारी है तो दूसरी ओर लगी प्रदर्शनी जनजातीय जीवन का करीब से दर्शन करा जाती है। तन पर भले कम कपड़े नजर आएं मगर चेहरे की खिलखिलाहट और उत्साह उनकी संतुष्टि को बयां कर जाती है। इसके अलावा कई देशों की जनजातीय जीवन से जुड़ी फिल्मों का प्रदर्शन उस समृद्घ संस्कृति की कहानी सुना रहा है जिसे लोग पिछड़ा और आदिम कहते हैं।

मध्य प्रदेश के आदिम जाति कल्याण विभाग के रचनाधर्मी उपक्रम वन्या की इस पहल में 40 देशों की भागीदारी है। इस महोत्सव के जरिए लोगों को अन्य देशों की जनजातीय संस्कृति को भी करीब से जानने का अवसर मिल रहा है, जिसे वे आसानी से हासिल नहीं कर सकते थे।

इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।

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