गुलेल से अत्याधुनिक हथियारों तक पहुंचने की दास्तान है प्रभाकरन का जीवन(जीवन-वृत्त)

By Staff
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नई दिल्ली, 18 मई (आईएएनएस)। श्रीलंका के पूर्वोत्तर हिस्से के एक बड़े इलाके पर वर्षो तक अपना वर्चस्व रखने और दुनिया को दशकों तक दहलाए रखने वाले वेलुल्लिई प्रभाकरन के पहले शिकार थे बेजुबान गिलहरियां और परिंदे और पहला हथियार था गुलेल!

पृथक तमिल ईलम राष्ट्र की स्थापना की उसकी मांग करीब 90,000 जिंदगियां लील गई, आत्मघाती हमलावरों का एक पंथ तैयार किया जिसने पूरी दुनिया को झकझोर कर रख दिया।

35 वर्ष से ज्यादा का समय प्रभाकरण ने भूमिगत रहकर और लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (लिट्टे)को सैन्य और आतंक का पर्याय बनाने की मशक्कत करने में बिताया जिसने हिंद महासागर पर बसे इस देश को आकर्षक पर्यटक स्थल की जगह लहूलुहान देश मे तब्दील कर दिया।

आलोचकों की नजर में प्रभाकरन सर्वशक्तिमान होने का भ्रम पालने वाला एक शख्स था जिसने कत्लों को ललित कला में तब्दील कर डाला। अपने चाहने वालों के लिए वह पूर्ववर्ती लिट्टे नेताओं से विपरीत एक जांजाब योद्धा था।

अन्य लोगों की तरह उसकी भी वही राय थी कि सिंहलियों द्वारा समान व्यवहार नहीं किए जाने के कारण तमिल श्रीलंका में रह नहीं सकते। प्रभाकरन ने घोषणा की कि जो भी उसके रास्ते आएगा उसे हटा दिया जाएगा।

बदले की भावना से जो कुछ उसने किया, वह बेहद वहशियाना, घातक और ज्यादा भयावह था।

दो राष्ट्रों के नेताओं के कत्ल के पीछे वही था। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की मई 1991 में और श्रीलंका के राष्ट्रपति राणासिंघे प्रेमदासा की मई 1993 में मई दिवस की रैली के दौरान हत्या कर दी थी।

जाफना के एक तमिल इलाके में 26 नवंबर 1954 को प्रभाकरन का जन्म हुआ, उन दिनों श्रीलंका में बौद्ध सिंहलियों और हिंदु तमिल अल्पसंख्यकों के बीच जातीय असंतोष ने जड़े जमानी शुरू ही की थीं।

प्रभाकरन के पिता सरकारी कर्मचारी और मां धर्मपरायण स्त्री थी। वह अपने माता पिता के दो पुत्रों और दो पुत्रियों में सबसे छोटा था और इस नाते परिवार में सबका लाडला था।

शुरुआती दिनों में वह सुभाषचंद्र बोस का प्रशंसक था जिन्होंने महात्मा गांधी के अहिंसा के सिद्धांत के खिलाफ बंदूक पसंद की थी। प्रभाकरन स्कूली पढ़ाई अधूरी छोड़ तमिल विद्रोह में कूद में पड़ा। पुलिस की कार्रवाई के कारण 1972 में वह घर से भाग गया।

सबसे पहले प्रभाकरन ने 1975 में जाफना के तमिल मेयर को मौत के घाट उतारा। अगले ही वर्ष उसने लिट्टे की बुनियाद रखी। शुरूआत में तो इस संगठन को कोई जानता नहीं था लेकिन 1978 में उसने अपना पहला प्रेस वक्तव्य जारी किया।

प्रभाकरन के लिए वे काले दिन थे। पुलिस उसके पीछे थी और उसके पास छिपने की जगह ज्यादा नहीं थी और गुपचुप तरीके से समुद्र के रास्ते तमिलनाडु आ गया। पैसे की दिक्कत यहां भी थी। कई राते उसने फाका काटकर बिताई।

प्रभाकरन पहली बार मई 1982 में मद्रास(अब चेन्नई) में अपने एक प्रतिद्वंद्वी की हत्या की कोशिश के आरोप में गिरफ्तार हुआ। भारतीय राजनीतिज्ञों की मदद से वह जमानत पाने में कामयाब रहा और खूनी पारी की शुरूआत करने श्रीलंका चला गया।

प्रभाकरन ने जुलाई 1983 में जाफना में सेना के गश्त लगा रहे दल पर घात लगाकर हमला किया। इसमें 13 सैनिक मारे गए। इसके बाद हिंसक आतंकवाद का दौर छिड़ गया।

एक समय ऐसा भी था जब भारत ने गुप्त रूप से लिट्टे समेत तमिल विद्रोही गुटों को प्रशिक्षण और सशस्त्र करने में भूमिका निभाई। उसने भारत से ही जानलेवा हमलों के आदेश देने शुरू कर दिए। जाफना विश्वविद्यालय की एक छात्रा से उसे प्रेम भी हुआ और वह तीन बच्चों का पिता भी बना। जनवरी 1987 में वह भारत से चला गया। उसके बाद भारत श्रीलंका में एक करार हुआ और वहां के पूर्वोत्तर इलाकों में भारतीय सेना तैनात कर दी गई।

प्रभाकरन अपनी मर्जी से हत्या कराता था चाहे कोई मुस्लिम हो या तमिलों में मौजूद शत्रु, या सिंहली नागरिक । उसके आत्मघाती हमलावर अपने मिशन पर रवाना होने से अपना आखिरी भोजन उसी के साथ करते थे।

अपने बंकरों में प्रभाकरन अपने बच्चों से बेहद प्रेम करने वाला पिता था, जो उनके जन्म दिन पर केक कटवाया करता था। वह अच्छा खाने का शौकीन था। खासतौर पर आइसक्रीम तो उसे बेहद पसंद थी। वह मृदुभाषी था और उसने साथियों से वफादारी की उम्मीद रखता था। दगाबाजों के लिए रहम की कोई जगह नहीं थी।

उसने 1995 तक जाफना पर पूरी तरह कब्जा रखा। 90 के दशक के आखिर में पूर्वोत्तर के कुछ हिस्से उसके हाथ से फिसलने लगे।

तब तक लिट्टे बहुत आक्रामक रूप ले धारण कर चुका था और समानांतर शासन चलाता था। उसके द्वारा पेश की जा रही सैन्य चुनौतियों से निपटने में विफल सरकार ने नार्वे से मध्यस्थता करने का अनुरोध किया। जिसकी बदौलत 2002 में संघर्षविराम हुआ।

विश्वास के अभाव में वर्ष 2004 में लिट्टे में दरार पड़ गई। वर्ष 2005 में आखिर में प्रभाकरन ने तमिलों से राष्ट्रपति चुनावों का बहिष्कार करने को कहा। इन्हीं चुनावों में महिंदा राजपक्से चुनकर आए। यह राजीव हत्या के बाद उसकी दूसरी बड़ी भूल साबित हुई।

लिट्टे के उकसावे से वर्ष 2006 में संघर्ष छिड़ गया और 2007 में पूर्वी हिस्सा लिट्टे के हाथ से जाता रहा। वर्ष 2008 में श्रीलंकाई सेना ने उत्तरी हिस्सों को अपने कब्जे में लेना और प्रभाकरन के करीबियों को मौत की नींद सुलाना शुरू किया।

प्रभाकरन की राजधानी कहलाने वाला किलिनोच्चि जनवरी 2009 में श्रीलंकाई सेना के कब्जे में चला गया और महज चार महीने बाद 18 मई को प्रभाकरन अपने दो प्रमुख साथियों के साथ युद्ध क्षेत्र से फरार होने की कोशिश करते समय मारा गया।

इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।

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