यूपी में जातिवादी राजनीति का जोर
नई दिल्ली। उत्तर प्रदेश की जातिवादी राजनीति का दौर खत्म होने के कोई आसार फिलहाल दिखाई नहीं देते। निकट भविष्य में भी इससे निजात मिलने की कोई संभावना दूर-दूर तक दिखाई नहीं दे रही है। युवा वर्ग भी मूल बदलावों के लिए संघर्ष करने के स्थान पर जातिवादी राजनीति से अपने तात्कालिक हितों को पूरा करने का आकांक्षी है।
राज्य के समाजशास्त्रियों और बुद्धिजीवियों के अनुसार उत्तर प्रदेश में जातिवादी राजनीति के जड़ पकड़ने की शुरुआत आजादी के तुरंत बाद ही हो गई थी। जमींदारी उन्मूलन के बाद मध्य स्तर की जातियों को हासिल भूमि अधिकार और 60 के दशक में हुई हरित क्रांति से आई समृद्धि ने पिछड़े वर्गो में राजनीतिक ताकत हासिल करने की भूख जगाई।
समाजवादी विचारक डा.राममनोहर लोहिया ने 'पिछड़ा पावै सौ में साठ' का नारा देते हुए पिछड़ी जातियों की इस महत्वाकांक्षा को सैद्धांतिक आधार दिया तो चौधरी चरण सिंह ने इसे काफी हद तक जमीनी हकीकत में बदलने का काम किया। चरण सिंह ने पिछड़ों की एकता के माध्यम से सत्ता पर से कांग्रेस और सर्वणों के वर्चस्व को काफी हद तक कमजोर किया।
काफी जटिल है जातियों का समीकरण
मंडल आयोग के लागू होने के बाद से पिछड़ी जातियों की राजनीति को और बल मिला। कुल जनसंख्या में नौ प्रतिशत आबादी यादवों की है। राज्य के 18 प्रतिशत मुसलमानों के साथ यह ऐसा समीकरण था जिसने मुलायम को ताकत दी। मुलायम के सत्ता में आने और राम मंदिर आंदोलन के उभरने के बाद पिछड़ी जातियों की एकता का नारा कुछ कमजोर पड़ा।
कांशीराम ने सरकारी सेवा में पहुंचे दलितों में चेतना जगाने से शुरुआत करके प्रदेश के दलितों को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक बनाने का काम किया। उत्तर प्रदेश में दलित 19 प्रतिशत हैं और किसी भी अन्य समुदाय का थोड़ा भी समर्थन बहुजन समाज पार्टी को सत्ता में लाने के लिए पर्याप्त है।
उत्तर प्रदेश में सवर्ण जातियों या अगड़ों की जनसंख्या करीब 20 प्रतिशत है। इस वोट बैंक पर कभी कांग्रेस का अधिकार था लेकिन अब यह भारतीय जनता पार्टी का आधार है।
समाजशास्त्रियों को मिले उलटे परिणाम
राज्य में साक्षरता बढ़ने और विकास के बाद जातिवादी चेतना घटने का जो अनुमान समाजशास्त्री लगा रहे थे, उसके ठीक उल्टे परिणाम आज दिखाई दे रहे हैं। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और गांधी अध्ययन न्यास संस्थान के निदेशक दीपक मलिक का कहना है कि युवा वर्ग आज जातिवादी और सांप्रदायिक राजनीति का अग्रिम दस्ता बन गया है।
उनका मानना है युवाओं में जातिवादी चेतना के पीछे किसी बड़े परिवर्तन की सोच या इच्छा न होकर केवल सत्ता में हिस्सेदारी की भावना है। प्रोफेसर मलिक इसे समाजिक परिवर्तन की स्वाभाविक प्रक्रिया का हिस्सा मानते हैं। स्वतंत्रता मिलने के बाद जिन महत्वपूर्ण प्रश्नों को दबा दिया गया था वे आज सतह पर आ गए हैं। इससे कुछ लोगों में बेचैनी हो सकती है लेकिन यह अपरिहार्य था।
डा.मलिक का मानना है कि पिछड़ों की तरह दलित एकता का नारा भी आने वाले समय में कमजोर पड़ेगा और बसपा का आधार कमजोर पड़ेगा। अपना दल, इंडियन जस्टिस पार्टी सहित कई अन्य संगठन अपनी ताकत बढ़ा रहे हैं। इससे नए जातीय समीकरण बनेंगे, जैसे पिछले विधानसभा चुनाव में दलितों और ब्राह्मणों के एक साथ आने से बना था।
तात्कालिक हितों को देख रहा समाज
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के आधुनिक इतिहास विभाग के अवकाश प्राप्त प्रोफेसर और इतिहास बोध नामक पत्रिका के संपादक डा. लालबहादुर वर्मा का कहना है कि पूरा समाज ही तात्कालिक हितों की ओर देखने की प्रवृत्ति का शिकार है। युवा वर्ग समाज का सबसे असुरक्षित समूह होता है और अपने को आर्थिक तथा सामाजिक रूप से स्थापित करने के लिए उसे जो भी सबसे नजदीकी रास्ता दिखाई देता है, वह उसी पर चल पड़ता है।
प्रोफेसर वर्मा के अनुसार जातिवादी राजनीति के अंत के लिए लंबे समय तक विचारधारात्मक संघर्ष चलाए जाने की जरूरत है। उन्होंने स्वीकार किया कि जातिवादी राजनीति को नकारने और समाज में मूलभूत परिवर्तन के लिए कार्य करने वालों की संख्या निरंतर घटती जा रही है।
इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।