विष्णु प्रभाकर के निधन से हिंदी साहित्य के एक युग का अंत (लीड-2)

By Staff
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लगभग छह दशक तक सक्रिय लेखन से जुड़े रहे प्रभाकर को पद्मभूषण से सम्मानित किया गया था। उनके उपन्यास 'अर्धनारीश्वर' के लिए उन्हें साहित्य अकादमी सम्मान से भी सम्मानित किया गया था।

प्रभाकर उस समय खासे चर्चा में आ गए थे, जब उन्होंने राष्ट्रपति भवन में कथित दुर्व्यवहार के लिए पद्मभूषण सम्मान लौटाने की चेतावनी दे दी थी।

प्रभाकर को करीब दो सप्ताह पहले छाती में संक्रमण और श्वास लेने में तकलीफ के बाद पंजाबी बाग स्थित एक अस्पताल में दाखिल कराया गया था। प्रभाकर के परिवार में दो पुत्र और दो पुत्रियां हैं। उनकी पत्नी का पहले ही निधन हो चुका है।

आधुनिक हिंदी साहित्य के अग्रणी लेखकों में शामिल प्रभाकर का जन्म उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के मीरापुर गांव में 29 जनवरी 1912 को एक पारंपरिक वैष्णव परिवार में हुआ था। उनकी मां महादेवी एक शिक्षित महिला थीं जिन्होंने उस समय के रूढ़िवादी समाज में परदा प्रथा का विरोध करने का साहस किया था।

अपनी आरंभिक शिक्षा के बाद प्रभाकर अपने मामा के घर हिसार (तत्कालीन पंजाब अब हरियाणा) चले आए। मैट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद हालांकि वह उच्च शिक्षा अर्जित करना चाहते थे लेकिन परिवार की वित्तीय हालत प्रतिकूल होने के चलते उन्हें मन मसोस कर रह जाना पड़ा।

पारिवारिक जरूरतों के चलते प्रभाकर ने बेहद कम उम्र में चतुर्थ श्रेणी के शासकीय कर्मचारी के रूप में 18 रुपये मासिक वेतन पर काम करना शुरू कर दिया हालांकि इसके साथ उन्होंने अपनी शिक्षा भी जारी रखी और हिंदी में प्रभाकर और हिंदी भूषण, संस्कृत में प्रज्ञा और अंग्रेजी में स्नातक की पढ़ाई पूरी की।

वर्ष 1938 में सुशीला प्रभाकर से उनकी शादी हुई। आजादी के बाद विष्णु प्रभाकर ने आकाशवाणी, नई दिल्ली में बतौर ड्रामा निदेशक के रूप में वर्ष 1955 से 1957 तक काम किया।

प्रभाकर ने उपन्यास, नाटक और कहानी जैसी हिंदी साहित्य की प्राय: प्रमुख विधाओं में लेखन किया। उनके द्वारा लिखित प्रख्यात बांग्ला साहित्यकार शरतचंद्र की जीवनी 'आवारा मसीहा' को हिंदी में लिखी गई कुछ सर्वश्रेष्ठ जीवनियों में शुमार किया जाता है।

प्रभाकर की लगभग 50 से अधिक रचनाओं का प्रकाशन हुआ था जिनमें 'अर्धनारीश्वर', 'आवारा मसीहा', 'ढलती रात', 'संघर्ष के बाद' और 'स्वप्नमयी' आदि प्रमुख हैं। उनकी रचनाओं में देशभक्ति, राष्ट्रीयता और सामाजिक उत्थान का स्वर प्रमुख है।

साहित्यकार विष्णु के नाम के साथ प्रभाकर जुड़ने की रोचक कहानी है। एक बार एक संपादक ने उनसे उनकी औपचारिक शिक्षा के बारे में जानना चाहा तो उन्होंने जवाब में प्रभाकर बताया। उसके बाद उस संपादक ने उनके नाम के आगे प्रभाकर जोड़ दिया। बस, वे विष्णु से विष्णु प्रभाकर हो गए।

उल्लेखनीय है कि प्रभाकर की अंतिम इच्छा के अनुरूप ही उनका अंतिम संस्कार नहीं किया जाएगा। उन्होंने मृत्यु के बाद अपना पार्थिव शरीर 'अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान' (एम्स) को दान करने का फैसला किया था।

विष्णु प्रभाकर भौतिक रूप से भले ही हमारे बीच से विदा हो गए हों लेकिन अपने लेखन और अपने विचारों के माध्यम से वे लंबे समय तक साहित्यप्रेमियों बीच मौजूद रहेंगे।

प्रभाकर के निधन पर अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव जनार्दन द्विवेदी ने कहा, "प्रभाकर का निधन हिंदी साहित्य की एक बड़ी क्षति है। मेरी जानकारी में वे अंतिम साहित्यकार थे, जिन्होंने अपने साहित्य में आजादी के संघर्ष के पुराने मूल्यों को बनाए रखा था।"

प्रभाकर की लंबी उम्र के रहस्य का खुलासा करते हुए जाकिर हुसैन कॉलेज में हिंदी विभाग के अध्यक्ष सुधीश पचौरी ने कहा कि वह अनुशासित और संयमित थे।

पचौरी ने कहा, "वह शांत स्वभाव के व्यक्ति थे। अपनी 85 वर्ष की उम्र तक वह प्रतिदिन अजमेरी गेट स्थित अपने घर से पैदल चल कर कनॉट प्लेस में मोहनन सिंह प्लेस स्थित काफी हाउस जाते थे।"

लेकिन लेखक पुष्पेश पंत के अनुसार प्रभाकर युवा पाठकों के बीच प्रासंगिक नहीं रह गए थे।

पंत ने आईएएनएस से कहा, "मुझे बताइए कि आज कितने युवा ऐसे हैं जो हिंदी साहित्य पढ़ते हैं? हम उन किताबों की चर्चा करते हैं, जो राजनीतिक वादविवाद पैदा करती हैं और बुकर पुरस्कार जीतती हैं। ऐसे माहौल में प्रभाकर की अपनी शैली और उनके गांधीवादी मूल्यों के लिए कहां स्थान बचता है।"

इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।

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