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विस चुनाव : मध्यप्रदेश में 'रियासतों' की सियासत

By Staff
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भोपाल, 15 नवंबर (आईएएनएस)। मध्यप्रदेश की राजनीति में 'रियासतों' का दखल बरकरार है। राजनीतिक दलों से लेकर सरकार बनाने तक में 'रियासतों' की ताकत को कोई नहीं नकार पाया है। सरकार किसी भी दल की बने मगर 'रियासतों' से जुड़े लोगों का दबदबा बना रहता है। इस चुनाव में बड़ी 'रियासतों' के ज्यादा प्रतिनिधि तो मैदान में नहीं है मगर उनसे जुड़े लोग अपनी ताकत का लोहा मनवाने लगे हैं।

मध्यप्रदेश की राजनीति में ग्वालियर, राघोगढ़, रीवा, पन्ना, नरसिंहगढ़, चुरहट, देवास, खिलचीपुर, दतिया, छतरपुर आदि 'रियासतों' की वजनदारी रही है। इन 'रियासतों' का दोनों प्रमुख दल भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और कांग्रेस में अपने-अपने स्तर पर पर्याप्त दखल है। यह बात अलहदा है कि वक्त के साथ-साथ वजनदारी घटती और बढ़ती रही है।

ग्वालियर 'रियासत' से जुड़े सिंधिया घराने का भाजपा और कांग्रेस दोनों में पर्याप्त दखल रहा है। विजया राजे सिंधिया के काल में भाजपा उनके इर्द गिर्द ही घूमती थी। आज भी इस घराने से जुड़ी राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया, सांसद यशोधरा राजे सिंधिया और सांसद माया सिंह का रूतबा किसी से छुपा नहीं है। कांग्रेस में भी माधवराव सिंधिया एक ताकत के रूप में पहचाने जाते थे। वर्तमान में केंद्रीय राज्य मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ग्वालियर चंबल अंचल में कांग्रेस की पहचान है। कांग्रेस के टिकट वितरण में उन्होंने अपनी ताकत का एहसास भी कराया है।

राघोगढ़ 'रियासत' के प्रतिनिधि और कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह की पहचान कांग्रेस के बड़े नेताओं में है। प्रदेश की कांग्रेस की राजनीति में उन्हें किनारे नहीं किया जा सकता है। उनके घराने से चुनाव मैदान में तो कोई नहीं है मगर उन्होंने जिसे उम्मीदवार बनाना चाहा वह आज मैदान में है। केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह के पुत्र अजय सिंह अपने परिवार की 'रियासत' चुरहट से चुनाव मैदान में है।

इसके अतिरिक्त देवास राजघराने से नाता रखने वाले तुकोजी राव पवार, खिलचीपुर के प्रियवृत सिंह, दतिया के घनश्याम सिंह, छतरपुर के विक्रम सिंह उर्फ नाती राजा, मकराई के विजय शाह और उनके भाई संजय शाह चुनाव मैदान में हैं।

मध्यप्रदेश में रियासतें खत्म हुए अरसा बीत चुका है मगर प्रदेश की सियासत में इनका दखल बना हुआ है। इनके प्रभाव और जनता के बीच बरकरार इनकी लोकप्रियता को हर दल भुनाना चाहता है। इसी का नतीजा है कि चुनाव के दौर में इन घरानों से जुड़े और नाता रखने वालों को न चाहते हुए भी पार्टियों को टिकट देना पड़ता है।

इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।

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