शास्त्रीय संगीत की बुझती लौ को प्रज्जवलित किया था भातखण्डे ने (भातखण्डे की पुण्यतिथि पर विशेष)
भोपाल, 18 सितम्बर (आईएएनएस)। भारतीय शास्त्रीय संगीत दुनिया के संगीत जगत में हिंदुस्तान की पहचान है। इस संगीत की धुन और राग मन-मस्तिष्क को आह्लादित कर देने वाले होते हैं। वक्त बेवक्त पाश्चात्य संगीत ने इस पर अपना प्रभाव जमाने की कोशिश की है मगर उसे हर बार मात मिली है।
पंडित विष्णुनारायण भातखण्डे भी उन्हीं नायकों में से एक हैं जिन्होंने भारतीय शास्त्रीय संगीत की बुझती लौ को प्रज्जवलित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
तत्कालीन बंबई प्रांत और वर्तमान के महाराष्ट्र के बालकेश्वर गांव में 1860 को संगीत साधक भातखण्डे का जन्म हुआ था। उनका बचपन से ही संगीत के प्रति लगाव था, मगर दौर वह ऐसा था जब शास्त्रीय संगीत पर पाश्चात्य संगीत का प्रभाव गहराता जा रहा था और वह उसमें विलय की स्थिति में पहुंच गया था।
जबलपुर के शासकीय मानकुंवर बाई कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय के संगीत प्राध्यापक डॉ. राजीव जैन बताते हैं कि पंडित भातखण्डे ने शास्त्रीय संगीत को जीवित रखने के लिए देश के कोने-कोने में जाकर संगीत संबंधी साहित्य की खोज की।
उन्होंने विकृत संगीत निधि को समेटकर ठोस संगीत पद्धति को जन्म दिया जिसे आज भातखण्डे स्वलिपि पद्धति के नाम से जाना जाता है।
भातखण्डे ने भारतीय संगीत को नई दिशा देने के लिए कृमिक पुस्तक मालिका नामक ग्रंथ को लिपिबद्ध किया जिसके छह भाग हैं। इसके अलावा उन्होंने अभिनव रागमंजरी, लक्ष्य संगीत व स्वर मालिका की रचना की जो नई पीढ़ी के लिए मार्ग दर्शक का काम कर रही है।
पंडित भातखण्डे ने शास्त्रीय संगीत को ऊंचाई तक पहुंचाने के लिए हर संभव कोशिश की। उसी का नतीजा है कि लखनऊ में भातखण्डे संगीत विद्यापीठ, ग्वालियर में माधव संगीत महाविद्यालय तथा बड़ौदा का संगीत महाविद्यालय स्थापित हो सका। इस संगीत साधक ने 19 सितंबर 1936 को गणेश चतुर्थी के दिन इस दुनिया से विदा ले ली।
डॉ. राजीव जैन कहते हैं कि पंडित भातखण्डे भले ही आज संगीत प्रेमियों के बीच नहीं हैं मगर उनके द्वारा प्रज्जवलित की गई शास्त्रीय संगीत की लौ आज भी नई संगीत प्रेमी पीढ़ी को रास्ता दिखाने का काम कर रही है।
इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।
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