पितृ ऋण से मुक्ति के लिए काशी में श्रद्धालुओं का जमावड़ा
वाराणसी, 15 सितम्बर (आईएएनएस)। पितृ ऋण से मुक्ति के लिए किए जाने वाले श्राद्ध और तर्पण का पर्व मंगलवार 16 सितंबर से शुरू होने के एक दिन पूर्व से ही अपने पितरों का तर्पण करने के लिए श्रद्धालुओं की भीड़ गंगा के घाटों पर देखी जाने लगी है। पितृ पक्ष में किए जाने वाले तर्पण के लिए काशी में पिशाच मोचन का पोखरा और गंगा घाट प्रमुख स्थल माने जाते हैं, जहां पर पूरे देश से सनातनधर्मी अपने पितरों का तर्पण करने के लिए आते हैं।
यहां रहने वाले पुरोहितों ने साफ -सफाई करके अपने-अपने यजमानों का इंतजार करना शुरू कर दिया है। क्योंकि पौराणिक मान्यता है कि प्रयाग में दान का, काशी में मुण्डन और तर्पण का तथा गया में पिण्ड दान का बड़ा महत्व है। पितृपक्ष में गया में पिण्डदान करने जाने वाला कोई भी तीर्थयात्री काशी जरूर आता है और यहां पर अपने पितरों का तर्पण कर पितृ ऋण से मुक्त होने का प्रयास करता है।
वाराणसी में पितृपक्ष में तर्पण और श्राद्ध करने वालों की भीड़ इतनी लगती है कि इन दिनों में यहां पुरोहितों की कमी हो जाती है, जिसे पूरी करने के लिए यहां के स्थानीय पुरोहित ठेके पर बाहर से बुलाते हैं। पिशाच मोचन के सबसे पुराने पुरोहित राधेश्याम उपाध्याय बताते हैं कि पहले की अपेक्षा अब श्रद्धालुओं की भीड़ ज्यादा होने लगी है।
भीड़ बढ़ने का कारण बताते हुए उपाध्याय कहते हैं कि इसका कारण बढ़ती हुई श्रद्धा नहीं बल्कि आवागमन की बढ़ी हुई सुविधा है। ऐसे में एक साथ हजारों लोग आ जाते हैं, जिसके कारण यहां पर पुरोहितों को बाहर से बुलाना पड़ता है। तर्पण और श्राद्ध करने से पहले यहां मुण्डन कराने की भी परम्परा है जिसे गंगा घाटों पर सम्पन्न किया जाता है।
पितृपक्ष में मुण्डन कराने वालों की संख्या भी काफी हो जाने के कारण यहां के स्थानीय नाई अपने सगे सम्बन्धियों को भी बुला लेते हैं ताकि उनके यजमान कहीं और जगह न जाएं
दिल्ली के वरिष्ठ ज्योतिषविद् पं.जयगोविंद शास्त्री के अनुसार वैसे तो पितृपक्ष की शुरुआत आश्विन कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा होती हैऔर उसका समापन अमावस्या को होता है, लेकिन शास्त्रों में भाद्रपद की पूर्णिमा के श्राद्ध का भी विधान है। इस बार षष्ठी तिथि का क्षय होने की वजह से पितृपक्ष 14 दिन का ही पड़ रहा है। इस दौरान पूरे समय वाराणसी में श्रद्धालुओं का जमावड़ा रहेगा।
तर्पण और श्राद्ध के महत्व के बारे में पुराणों के जानकार डा. जानकी प्रसाद द्विवेदी का बताते हैं कि श्राद्ध और तर्पण की परम्परा की शुरुआत राजवंश से शुरू हुई मानी जाती है। भूलोक के प्रथम राजा इक्ष्वाकु ने वैवस्त मनु के लिए तर्पण किया था। इसके बाद वाल्मिकी रामायण में राम के द्वारा अपने पिता दशरथ का चित्रकूट में तर्पण करने का उल्लेख मिलता है। तब से यह परम्परा निर्बाध रूप से सनातनधर्मियों में चलती आ रही है।
इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।
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