लोकगीतों से पीड़ा बयां करते बाढ़ पीड़ित
पटना, 8 सितम्बर (आईएएनएस)। कोसी का पानी घटने लगा है। अब कई लोग राहत शिविरों को छोड़ घर जाना चाहते हैं। इन इलाकों में महिलाएं अपनी पीड़ा लोकगीतों के माध्यम से अभिव्यक्त कर रही हैं जो उनके संपूर्ण जीवन की जटिलतम कहानी को बयां करती है।
पटना, 8 सितम्बर (आईएएनएस)। कोसी का पानी घटने लगा है। अब कई लोग राहत शिविरों को छोड़ घर जाना चाहते हैं। इन इलाकों में महिलाएं अपनी पीड़ा लोकगीतों के माध्यम से अभिव्यक्त कर रही हैं जो उनके संपूर्ण जीवन की जटिलतम कहानी को बयां करती है।
कोसी नदी के तट पर बसे लोग इस त्रासदी के बाद भी अभी हारे नहीं हैं। यह संभव भी नहीं, क्योंकि उनके जीने की चाह और जद्दोजहद का लंबा इतिहास है जो लोकगीतों से बयां होता है। 'ऐते दुख देलों हे माय कोसिया, ऐते दुख देलों, आरी चढ़ि क रोवे छै किसान' जैसे गीत के माध्यम से लोग अपने जीवन के दर्द को गुनगुनाते हैं, जिससे मन रागात्मक हो उठता है।
सुपौल जिले के डुमरा गांव के संजय कुमार ने बताया, "कोसी कन्हेर (तट) से उपजे गीतों को गाने से स्थानीय लोगों में उत्साह और ऊर्जा का संचार होता है। ऐसे गीत तबाहियों से सामना करने का साहस प्रदान करते हैं।" उन्होंने कहा, "कोसी हमेशा अपने नए-नए रूपों से हमारी पहचान कराती है।"
कोसी तटबंध पर रहने वाली नवविवाहित जब 'कथी ले रोपलियै हे कोसी माय आमुन-जामुन गछिया हे..तोहरे जे अयने पिया गेल परदेस हे' गाती हैं तो संजय की बातें सही मालूम पड़ती हैं।
मधेपुरा जिले के सुखासन गांव की रहने वाली शिक्षिका सुनीता वर्मा ने कहा, "कोसी मां ने कई सामजिक ताने-बाने छिन्न-भिन्न किए हैं और नए गढ़े हैं।" कोसी इलाकों की यात्रा सुनीता वर्मा की बातों की गहराई का सहज एहसास कराती है। उन्होंने कहा, "लोकगीत यूं ही नहीं उपजते! उसकी एक परंपरा होती है।"
हालांकि यहां केवल पीड़ा के गीत ही नहीं गाए जाते हैं बल्कि कोसी तट पर बसे लोगों ने इस नदी से रागात्मक रिश्ता भी स्थापित किया है। यहां गाए जाने वाले लोकगीत 'हमहूं जे करवै कोसिका से बिहा गे मैया...' इसी ओर इशारा करती है।
इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।
**