नदियां बदल रही हैं अपना रास्ता
विशेषज्ञ बताते हैं कि बीते 150 सालों में कोसी नदी ने करीब 200 किलोमीटर तक रास्ता बदला है। इन आपदाओं से निपटने के लिए हमारी सरकार के पास क्या प्रबंध हैं इसे इस बार बिहार में आई जबरदस्त बाढ़ से ही समझा जा सकता है।
यह कहानी सिर्फ कोसी की नहीं है। मनमाने तथा अनियोजित तरीकों बांध और सड़कें बनाए जाने तथा पारिस्थितिकी की उपेक्षा करके अनियंत्रित विकास ने सभी छोटी-बड़ी नदियों पर अपना प्रभाव डाला है।
उत्तर प्रदेश में राप्ती और घाघरा नदियों ने बीते कुछ दशकों में छह से 10 किलोमीटर तक रास्ता बदला है। यदि सरकारी अस्पतालों में धूल खा-रही फाइलों के आंकड़ों पर गौर किया जाए तो इन नदियों ने न सिर्फ सैकड़ों गांवों के अस्तित्व को समाप्त किया बल्कि बड़ी संख्या में लोगों को विस्थापित भी किया है।
आईआईटी कानपुर में हुई एक स्टडी से पता लगता है कि राप्ती ने बीते कुछ दशकों में अपना रास्ता 10 किलोमीटर तक बदला है। इस बात के लिए चिंता जताई जा रही है कि आने वाले सालों में बहराइच, श्रावस्ती, बलरामपुर, सिद्धार्थनगर, महाराजगंज, गोरखपुर और देवरिया जैसे जिले राप्ती के कहर का शिकार हो सकते हैं। बढ़ते प्रदूषण के कारण नदी की गहराई दिन-प्रतिदिन कम होती जा रही है।
नेपाल से निकलने वाली नदियां और नाले बरसात के दिनों में हालात को किस कदर खतरनाक बना सकते हैं इसे जानने के लिए 1998 की प्रलयंकारी बाढ़ को सिर्फ याद करना ही काफी होगा। बिहार की बाढ़ पूर्वाचंल के लिए एक बार फिर खतरे की घंटी बनकर आई है।
सामाजिक कार्यकर्ता तथा पीयूसीएल के जिला समन्वयक फतेह बहादुर सिंह कहते हैं कि नेपाल से सटे सीमावर्ती इलाके बहुत संवेदनशील हैं, चाहे बिहार हो या उत्तर प्रदेश। असली समस्या नेपाल से आ रहे पानी के प्रबंधन की है।
दोनों सरकारों को चाहिए कि इस मसले पर आपस में बातचीत करके ठोस योजनाएं बनाएं ताकि उन्हें अमल में लाया जा सके और भविष्य में संभावित भीषण विनाश को रोका जा सके।