मुसहरों को बता रहे अधिकार लेने के तरीके
यह फाउंडेशन पहली बार वर्ष 1980 में उस समय प्रकाश में आया था, जब दक्षिण कोरिया में सैन्य शासन के खिलाफ बगावत की आवज बुलंद की थी। यह दल सर्वप्रथम जिले में स्थित बेलवां मुसहर बस्ती पहुंचा, जहां बस्ती के लोगों ने दल का खूब स्वागत किया और लोक गीतों के माध्यम से अपनी पीड़ा व्यक्त की।
बस्ती में पूरा दिन गुजारने के बाद दल का नेतृत्व कर रहे ली जुंग ने कहा, "भारत का यह समाज जिस समस्या से ग्रस्त है, किसी जमाने में हमारे देश में भी ऐसी ही समस्या थी, लेकिन थोड़ा अंतर यह है कि हमारे देश के लोगों को रोटी की समस्या से नहीं जूझना पड़ता था। यहां के लोगों को अधिकारों के साथ-साथ रोटी के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा है।"
आजादी के 62 वर्ष बाद भी मुसहर समाज दो वक्त की रोटी के लिए संघर्ष कर रहा है। इनके परिवार के बच्चे आज भी गांव के किसी भोज में जूठन पाने के लिए मारा-मारी करते दिख जाते हैं। ऐसा नहीं कि सरकार की तरफ से इनके लिए योजनाएं नहीं चलाई गईं। विडंबना यह है कि कोई योजना इन तक पहुंचती ही नहीं है। गरीब और निरक्षक यह समाज अपने अधिकारों को भी नहीं जानता।
कोरियाई दल के सभी सदस्यों ने इस समाज को उचित सम्मान देते हुए इनके साथ सामूहिक भोजन किया। इससे रामवृक्ष की आंखें डबडबा गईं। उसने कहा, "काश! ऐसा प्यार हमारे देश के लोगों से भी मिलता।"
इस दल में शामिल एक महिला फुंग शू ने कहा, "हम भले ही इनकी भाषा नहीं समझ पा रहे हैं, लेकिन एक दूसरे की भावनाएं जरूर समझ रहे हैं। इन्हें अपनी क्षमता और हुनर के आधार एकजुट होकर संघर्ष करना चाहिए।" उन्होंने कहा कि यदि बच्चों के लिए स्कूल नहीं है तो स्कूल खोलें जाने के लिए संघर्ष करें। बच्चे अपने अधिकारों को समझें और उसे पाने के लिए प्रयास प्रारंभ करें।
सारा दिन मुसहरों को अधिकारों का पाठ पढ़ाने तथा रात्रि विश्राम के बाद शनिवार को यह दल बघवा नाला में स्थित स्कूल गया, जहां एक स्वयं सेवी संस्था अपने प्रयास से मुसहरों के बच्चों को स्कूल से जोड़ने के प्रयास में जुटी है।
वहां ली जुंग ने बच्चों को खिलौने और खाद्य सामग्री के पैकेट दिए। उन्होंने कहा कि यहां स्थिति बहुत नाजुक है। जिस देश के बच्चे ऐसे हालात में हैं, वह देश भविष्य में कैसे तरक्की करेगा।
कार्यक्रम के आयोजक और मानवाधिकार जन निगरानी समिति के अध्यक्ष डा. लेनिन रघुवंशी ने बताया, "दक्षिण कोरिया दुनिया का एक प्रमुख लोकतांत्रिक देश है। इनके यहां अब इस तरह के संघर्ष की जरूरत नहीं है, लेकिन वे लोग भी यहां यह सीखने आए हैं कि विपरीत परिस्थितियों में संघर्ष कैसे किया जाता है।"
इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।
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