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बहुरुपिये लड़ रहे हैं अस्तित्व की लड़ाई

By Staff
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आजमगढ़, 24 अगस्त (आईएएनएस)। कभी बहुरुपियों के लिए देश भर में जाना जाने वाला आजमगढ़ जिले का करीमपुर गांव आज अपने हाल पर आंसू बहा रहा है। यहां अब न तो बहुरुपिया बनने की कला रही, न कलाकार और न ही इसके कद्रदान। इसलिए लगभग 2200 की आबादी वाले बहुरुपियों के इस गांव के सामने आज रोजी-रोटी का संकट पैदा हो गया है।

विडंबना यह है कि अपनी कला के दम पर जीवन यापन करने वाले यहां के कलाकारों के पास न तो जमीन जायदाद है और न ही कोई पुश्तैनी धंधा। चूंकी कई पीढ़ियों से ये लोग बहुरुपियों का वेष धरकर लोगों का मनोरंजन करके अपना पेट पालते आए हैं, इसलिए इन्हे सिवाय रूप बदलकर लोंगो को हंसाने के अलावा दूसरा कोई काम आता भी नहीं।

75 वर्ष के बेचन, जो करीमपुर गांव के सबसे पुराने बहुरुपिये हैं, को कभी अपनी कला और अपने कलाकार होने पर बड़ा नाज हुआ करता था। इसी कला के द्वारा अपनी जवानी के दिनों में ये लोगों का मनोरंजन करके अपने परिवार का पेट पाला करते थे, लेकिन आज इनका जीवन लोगों की दया पर चलता है।

आंखों में आये आंसू को रोकने का असफल प्रयास करते हुए बेचन बताते हैं, "क्या बताएं साहेब, हमने इस कला का स्वर्णिम काल भी देखा है और आज सबसे खराब समय भी देख रहा हूं"।

अपने पुराने दिनों को याद करते हुए बेचन बताते हैं कि जब वे काली, दुर्गा और हनुमान का रूप बनाकर सड़क पर निकलते थे तो लोग श्रद्घा से सिर झुका लेते थे और जब जोकर बनकर गली में निकलते थे तो बच्चे किलकारी मारने लगते थे।

बकौल बेचन, "उस समय तो हमें भी लगता था कि हमारी कला सार्थक है और इसके बदले लोग हमें तथा हमारे परिवार के पेट पालने भर के लिए खुशी-खुशी पैसे और अन्य दे दिया करते थे, लकिन आज समय बदल गया है। अब तो बहुरुपियों को लोग या तो भिखारी समझते हैं या फिर शक की निगाह से देखते हैं। इसलिए अब इस धंधे से परिवार पालने की बात तो दूर अब अपना पेट भी पालना मुश्किल हो गया है"।

गौरतलब है पारंपरिक मनोरंजन और उससे जुड़े हुए लोंगो के सामने आया भूखमरी का यह संकट एक दिन में नहीं आया है, बल्कि यह बदलते जमाने का तकाजा है। वक्त बदला, रहन-सहन के तौर तरीके बदले तो लोगों के मनोरंजन के मायने और साधन भी बदल गये। आज टीवी, रेडियो, इंटरनेट, विडियो गेम जैसे तमाम मनोरंजन के साधन विकल्प के रूप में आ जाने से प्राचीन मनोरंजन जैसे मदारी, बहुरुपिये, बाइसकोप आदि अब बीते जमाने की बातें होकर रह गए हैं। इसलिये गांव-गांव गली-गली घूमकर लोगों का मनोरंजन करके अपना पेट पालने वालों के सामने आज भूखमरी का संकट आ गया है।

कहते हैं कि जब कोई संकट में होता है तो या तो वह भगवान को याद करता है या फिर सरकार को। चूंकी यह रोजी-रोटी से जुड़ी कला है और इसके संकट में आने से हजारों परिवार संकट में आ जायेंगे, इसलिए ये लोग सरकार से इस कला को संरक्षण देने की गुहार लगा रहे हैं।

करीमपुर गांव में ही रहने वाले एक बुजुर्ग कालीदीन ने बताया कि इस गांव की हालत यह है कि गांव के बुजुर्ग लोगों की दया पर जीवित हैं। जवान व्यक्ति कला छोड़कर मजदूरी करने लगे हैं, लेकिन जो लोग इस काम को कर रहे हैं, उनके भी पेट की आग ये कला नहीं बुझा पा रही है। 25 साल का बबलू बताते हैं कि उनके पिताजी अकेले आठ लोंगो का परिवार इसी कला के भरोसे पाल लेते थे, लेकिन आज वह तीन भाई मिलकर भी अपने परिवार का भरण-पोषण बड़ी मुश्किल से कर पाते हैं।

लोगों के मुरझाए चेहरों पर मुस्कराहट बिखेरने वाले इन बहुरुपियों की मुस्कराहट के पीछे जो आंसू हैं, उन्हें शायद ही कोई महसूस करता हो। भूखे पेट रहने वाले खुशी के इन सौदागरों के सामने अब रोजी-रोटी का संकट तो आ ही गया है, साथ ही अब ये अपने अस्तित्व की लड़ाई भी लड़ रहे हैं।

कहना गलत न होगा कि मुस्कुराहट देने वाले ये बहुरुपिये हमारी संस्कृति के अंग भी हैं। इन्हें सुरक्षित रखने की कोई सार्थक पहल आज तक नहीं हुई है। रोजी-रोटी और अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे ये लोग अब सरकार की तरफ टकटकी बांधे देख रहे हैं कि शायद सरकार इनकी तरफ नजरे इनायत कर दे।

इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।

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