नेपाल में उथल-पुथल का फायदा उठा रहा है भदोही का कालीन उद्योग
वाराणसी, 3 अगस्त (आईएएनएस)। नेपाल की राजनीति में छाए अनिश्चितता के काले बादल भले ही छट गये हों लेकिन वहां हुए उथल पुथल का फायदा भदोही के कालीन उद्योग को खूब मिल रहा है, क्योंकि आजकल भदोही और मिर्जापुर में बने जिस कालीन की यूरोप और लैटिन अमेरिका में सबसे ज्यादा मांग है उसकी तकनीक नेपाल से लाई गयी थी। जी हां उसका नाम है 'इंडो नेपाली कार्पेट'।
इंडो नेपाली कार्पेट की यूरोपीय बाजार में इतनी धूम हो गयी है कि भारत के कुल कालीन निर्यात में इसका हिस्सा 20 से 22 प्रतिशत तक पंहुच गया है, जिससे इंडो नेपाली कार्पेट का व्यापार 250 करोड़ से बढ़कर लगभग 400 करोड़ के आसपास तक पहुंच गया है। इसकी वजह से कालीन निर्यातक इस पर खास ध्यान दे रहे हैं। मांग बढ़ने की वजह से इसमें रोज नई नई डिजाईनें भी आजमाई जा रही हैं। खास बात यह है कि इस कालीन का निर्माण सिर्फ भदोही और मिर्जापुर में ही होता है।
वैसे कार्पेट की यह इंडो नेपाली तकनीक मूल रूप से तिब्बत की है, जिसके कारीगर लगभग साठ के दशक में तिब्बत में चीन की दखलंदाजी के बाद नेपाल में आकर बस गये थे और वहां अपना कारोबार शुरू करके अपने हुनर के जादू को पूरी दुनिया में नेपाली कार्पेट के नाम से फैला दिया।
नेपाली कार्पेट नेपाल में बड़े पैमाने पर बनने तो लगा, लेकिन उसकी धुलाई की तकनीक वहां विकसित नहीं हो पाई इसलिए उसकी धुलाई या तो भारत में होती थी या फिर वह बिना धुलाई के ही निर्यात कर दिया जाता था। बिना धुलाई के निर्यात करने पर अंतर्राष्ट्रीय मार्केट में उसकी उचित कीमत नहीं मिल पाती थी।
भदोही में कालीन के निर्यातक अशोक कपूर बताते हैं कि 1987 के बाद नेपाल में कार्पेट वासिंग की तकनीक विकसित हुई। लिहाजा नेपाल में तैयार कालीन की धुलाई के लिए कारीगर भदोही और मिर्जापुर से जाने लगे। इस तरह कालीन बुनकरों का आना जाना शुरू हुआ। लेकिन जब नेपाल में भी राजनीतिक अस्थिरता का दौर शुरू हुआ और उसका असर कार्पेट के निर्यात पर पड़ने लगा तो रोज कमाने रोज खाने वाले नेपाली बुनकरों के सामने भी भुखमरी का संकट पैदा होने लगा ।
कपूर ने बताया कि इसके बाद वे काम की तलाश में भदोही आ गये जहां कालीन के कारोबारियों ने उन्हें हाथों हाथ लिया और उनसे वही नेपाली कालीन ठेके पर बनवाने शुरू किये जो धीरे धीरे बढ़ता गया। आज स्थिति यह है कि परसियन कार्पेट, हैंड नेटेड, तथा हैंड टफटिंग कार्पेट के लिए जाने जाने वाले भदोही और मिर्जापुर में इंडो नेपाली कार्पेट का बाजार सबसे गर्म है।
इंडो नेपाली कार्पेट की खास विशेषता है कि यह न तो बहुत भारी भरकम होता है और न ही इसे बनाने में कई महीने लगते हैं। बल्कि यह तो हल्का होता है, आधुनिक फैशन के हिसाब से बनाया जाता है इसलिए इसमें प्रतिदिन आधुनिक डिजाइनों की खोज जारी रहती है।
इंडियन इन्स्टीच्यूट आफ कार्पेट टेक्नोलाजी के निदेशक के. के. गोस्वामी ने बताया कि चूंकि कार्पेट के अंतर्राष्ट्रीय बाजार में नेपाली निर्यातकों पर अब कम विश्वास किया जाता है जिसका फायदा इस समय हमें मिल भी रहा है। यदि फैशन के हिसाब से बदलाव नहीं किया जायेगा, डिजाइनों को अपडेट नहीं किया जायेगा तो इसकी डिमांड कम होने लगेगी।
तिब्बत से चलकर नेपाल के रास्ते भारत पहुंची कार्पेट की यह तकनीक विश्व आर्थिक मंदी के दौर में आजकल कोरामिन इंजेक्शन की तरह काम कर रही है। जिसे बरकरार रखने के लिए कालीन व्यवसायी पूरी ताकत झोंक देना चाहते हैं।
इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।
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