राम मंदिर आंदोलन में बिहार के छपरा और दरभंगा के दो संतों का रहा बड़ा योगदान
राम मंदिर आंदोलन में बिहार के दो संतों का रहा बड़ा योगदान
नई दिल्ली। अय़ोध्या में भूमि पूजन के साथ राम मंदिर निर्माण का कार्य शुरू हो गया। करीब पांच सौ साल साल पुराने विवाद के शांतिमय समाधान का यह अविस्मरणीय पल है। मौजूदा पीढ़ी ने एक नये इतिहास को बनते देखा। यह असाधारण बात है। राम मंदिर निर्माण के मार्ग को प्रशस्त करने में बिहार का बहुत बड़ा योगदान है। 1949 में रामजन्म स्थान पर रामलला की जो मूर्ति अवतरित हुई थी उसमें संत अभिराम दास और संत रामचंद्र दास परमहंस का बहुत बड़ा योगदान था। ये दोनों संत बिहार के रहने वाले थे। संत अभिराम दास जी का जन्म दरभंगा जिले एक मैथिल ब्राह्मण परिवार में हुआ था जब कि संत रामचंद्र दास परमहंस जी का जन्म छपरा के संहनीपुर गांव के एक कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार में हुआ था। दोनों ही वैराग्य धारण कर अयोध्या चले गये थे। बिहार के इन दो संतों ने कैसे राम मंदिर के निर्माण की पहली सीढ़ी कैसे तैयार की वह एक लोमहर्षक घटना है। इस घटना को प्रस्तुत करने के दो आधार हैं। पहला आधार है भारत के पूर्व प्रधानमंत्री पी बी नरसिम्हा राव की किताब 'अयोध्या, 6 दिसम्बर 1992’ और दूसरा आधार है प्रसिद्ध पत्रकार हेमंत शर्मा की किताब 'युद्ध में अयोध्या’।
संत रामचंद्र दास परमहंस
संत रामचंद्र दास के बचपन का नाम चंद्रेश्वर तिवारी था। उनका जन्म 1912 में छपरा जिले के सिंहनीपुर गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम भगेरन तिवारी और माता का नाम सोना देवी था। बचपन में ही चंद्रेश्वर तिवारी के मात-पिता का निधन हो गया था। चाचा यज्ञानंद तिवारी ने उनका लालन-पालन किया। घर में शिक्षा और धर्म के प्रति विशेष अनुराग था। चंद्रेश्वर मैट्रिक की परीक्षा पास कर चुके थे। कॉलेज में दाखिला लिया था। इसी दौरान वे अपने परिजनों के साथ एक यज्ञ देखने गये। यज्ञ के मंत्रोच्चार और पूजा करा रहे पुरोहितों से वे बहुत प्रभावित हुए। दो साल तक किसी तरह और पढ़ाई की फिर धार्मिक कार्यों में रुचि लेने लगे। 1930 में वैराग्य धारण कर लिया और अयोध्या पहुंच गये। उन्होंने आयुर्वेद की पढ़ाई की थी। अयोध्या में वे संत परमहंस रामकिंकर दास जी के सम्पर्क में आये। रामकिकंर दास जी ने चंद्रेश्वर तिवारी को नया नाम दिया रामचंद्र दास परमहंस। युवा रामचंद्र दास 1934 में ही रामजन्मभूमि आंदोलन से जुड़ गये।
बाबा अभिराम दास
बाबा अभिराम दास जी का मूल नाम अभिनंदन मिश्र था। उनका जन्म 1904 में दरभंगा जिले एक गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम जयदेव मिश्र और माता का नाम थक्कई देवी था। उनको पढ़ने-लिखने में कोई रुचि नहीं थी। लेकिन शरीर से बहुत बलवान थे। धर्म में गहरी आस्था थी। एक दिन घर छोड़कर अयोध्या के हमुमानगढ़ी पहुंच गये। अभिनंदन मिश्र नागा सम्प्रदाय के महंत सरजू दास जी के सम्पर्क में आये। महंत सरजू दास जी ने अभिनंदन मिश्रा को साधु धर्म की दीक्षा दी और उन्हें नया नाम दिया अभिराम दास। अब अभिराम दास एक वैरागी नागा संन्यासी बन चुके थे। अभिराम दास 1944 में हिंदू महासभा से जुड़ गये और राम मंदिर आंदोलन में शामिल हो गये। अभिराम दास बलिष्ठ शरीर के स्वामी थे। वे पढ़े लिखे नहीं थे इसलिए उन्होंने अपने शारीरिक बल को ही अपने कर्म का आधार बनाया। उनके बल के आगे बड़े-बड़े पहलवान पानी मांगते थे। वे अखाड़े में घंटों कसरत करते। नित्य दिन सरयू नदी में स्नान करते और पूजा पाठ में समय बीताते। 45 साल की उम्र में भी उनके बल का पराक्रम देखने लायक था।
1949 का घटना क्रम
अयोध्या में जनश्रुति थी कि रामजन्म भूमि मंदिर को तोड़ कर मस्जिद बनायी गयी थी। यह एक विवादित स्थल बन चुका था। हिंदू धर्मावलंबी राम जन्म भूमि को मुक्त कराने के लिए सैकड़ों साल से संघर्ष कर रहे थे। 23 दिसम्बर 1949 को अभी भोर हुई ही थी कि अयोध्या में एक विस्मयकारी चर्चा शुरू हो गयी। जंगल के आग की तरह हर तरफ ये बात फैल गयी कि रामजन्म भूमि स्थान पर रामलला स्वयं अवतरित हुए हैं। रामलला के दर्शन के लिए लोगों का रेला उमड़ पड़ा। चूंकि रामजन्म भूमि और बाबरी मस्जिद को लेकर विवाद चल रहा था इसलिए सरकार ने वहां पुलिस की पहरेदारी लगा दी थी। पुलिस वाले शिफ्ट में 24 घंटे ड्यूटी करते थे। 23 दिसम्बर 1949 की सुबह सिपाही माता प्रसाद की ड्यूटी थी। ड्यूटी पर तैनात सिपाही को हर दिन थाना में रिपोर्ट करनी होती थी कि विवादित स्थल के पास सब कुछ ठीक है। लोगों की भारी भीड़ देख कर माता प्रसाद ने थाना को सूचना दी। नरसिम्हा राव की किताब में इस घटना का जिक्र किया गया है। अयोध्या के थानेदार रामदेव दुबे पुलिस बल के साथ वहां पहुंचे तब देखा कि बीच वाले गुंबद के ठीक नीचे रामलला की मूर्ति विराजमान है। मस्जिद की दीवार से सटे चबूतरे के पास जो रामलला की मूर्ति थी अब वो वहां नहीं है। थानेदार को साधुओं और लोगों ने बताया कि रामलला की मूर्ति वहां स्वंय प्रगट हुई है। लेकिन पुलिस ने इसे नहीं माना। इसके बाद सिपाही माता प्रसाद के बयान पर थानेदार रामदेव दुबे ने एफआइआर दर्ज कर लिया। इस घटना में बाबा अभिराम दास और बाबा रामचंद्र परमहंस का नाम सामने आया। आरोप लगा कि कुछ साधुओं ने जबरन मस्जिद की दीवार फांद कर गुंबद यानी गर्भगृह में रामलला (भगवान राम का बाल रूप) की मूर्ति स्थापित कर दी।
22 दिसम्बर 1949 की वो रात
22 दिसम्बर 1949 की रात कड़ाके की ठंड थी। उस सर्द रात में सरयू नदी के किनारे पांच लोग जमा थे। एक अभियान को मूर्त रूप दिया जाना था। निर्मोही अखाड़ा के बाब अभिराम दास, दिगम्बर अखाड़ा के रामचंद्र परमहंस, गोरखपीठ के महंत दिग्विजय नाथ और देवरिया के बाब राघवदास नदी के किनारे कुछ योजना बना रहे थे। इस योजना का संचालन कर रहे थे गीता प्रेस, गोरखपुर के मालिक हनुमान प्रसाद पोद्दार। सभी संत उन्हें भाईजी के नाम से पुकारते थे। पत्रकार हेमंत शर्मा की किताब में इस घटना का विस्तार से जिक्र है। नदी के किनारे जमा सभी पांच लोगों ने हाड़ कंपाने वाले ठंडे पानी में स्नान किया। नये कपड़े पहने। भाईजी अपने साथ भगवान राम के बालरूप की एक मूर्ति साथ लाये थे जो अष्टधातु से बनी थी। सरयू नदी के जल से मूर्ति का वहीं पूजन अर्चन हुआ। फिर मूर्ति को बांस की एक टोकरी में रख कर नये कपड़े से ढक दिया गया। चूंकि सबसे बलशाली अभिराम दास थे इसलिए उन्होंने मूर्ति वाली टोकरी सिर पर उठा ली। रामचंद्र परमहंस ने तांबे के एक कलश में सरयू नदी का जल भर लिया था। फिर पांचों लोग रामधुन गाते हुए हनुमानगढ़ी की तरफ बढ़ने लगे। इस यात्रा में उनके साथ तीस-चालीस साधु और शामिल हो गये। हनुमानगढ़ी से रामजन्म भूमि की दूरी करीब एक किलोमीटर है।
रामलला अवतरित हुए !
राजन्म स्थान और बाबरी मस्जिद की सुरक्षा के लिए वहां पीएसी के करीब 24 जवान तैनात थे। 22 दिसम्बर की उस रात वे अपने तंबू में सो रहे थे। विवादित परिसर के अंदर अय़ोध्या थाना के दो सिपाहियों की बारी-बारी से ड्यूटी थी। उस रात 12 बजे तक सिपाही शेर सिंह की ड्यूटी थी। मस्जिद की दीवार से लगे राम चबूतरे के पास पहले से अखंड कीर्तन चल रहा था। उस दिन यज्ञ हवन का दिन था। सरयू नदी के किनारे से चला साधुओं का जत्था जब राम चबूतरे के पास पहुंचा तो उस समय सिपाही शेर सिंह पहरेदारी कर रहे थे। शेर सिंह का बाबा अभिराम दास के साथ उठना-बैठना था। दोनों साथ चिलम फूंकते थे। बाबा अभिराम दास के सिर पर टोकरी थी और वे टोकरी सहित मस्जिद की दीवार फांद कर अंदर जाने की कोशिश करने लगे। शेर सिंह यह देख कर भावनाओं में बह गये। उन्होंने परिसर का ताला खोल कर सात-आठ साधुओं को अंदर दाखिल करा दिया। साधुओं के दाखिल होने के बाद मस्जिद का मुअज्जिन मोहम्मद इस्माइल जाग गया। उसकी नजर बाबा अभिराम दास पर पड़ी जिनके हाथ में रामलला की मूर्ति थी। वह उनकी तरफ लपका लेकिन बलिष्ठ अभिराम दास ने उसे पास न फटकने दिया। इस्माइल साधुओं से लड़ नहीं सका और वहां से भाग निकला। फिर लालटेन की रोशनी में गर्भगृह के फर्श को सरयू नदी के पानी से धोया गया। लकड़ी से सिंहासन पर चांदी का सिंहासन रखा गया। उस पर नया कपड़ा बिछा कर रामलला की मूर्ति स्थापित कर दी गयी। वैदिक मंत्रोच्चार के साथ मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा भी कर दी गयी। सिपाही शेर सिंह तब तक ड्यूटी पर बना रहा जब तक कि सारी प्रक्रिया सम्पन्न नहीं हो गयी। रात के एक बज चुके थे। शेर सिंह ने नियत समय से एक घंटे अधिक ड्यूटी कर ली थी। रात एक बजे उसने अपने जोड़ीदार सिपाही अब्दुल बरकत को आगे की ड्यूटी के लिए जगाया। बरकत ने गुबंद के नीचे मूर्ति देखी तो उसके होश उड़ गये। लेकिन बाद में जब बरकत ने एफआइआर के लिए जब अपना बयान दर्ज कराया तो उसने कहा, रात करीब 12 बजे के आसपास बीच वाले गुबंद के नीचे एक आलौकिक रोशनी हुई। रोशनी कम होने पर उसने जो देखा उस पर विश्वास न हुआ। वहां अपने तीन भाइयों के साथ भगवान राम के बाल रूप की मूर्ति विराजमान थी। बरकत का यह बयान साधुओं के लिए ढाल बन गया।
जब अयोध्या के डीएम ने इस्तीफे की पेशकश की
विवादित स्थान पर रामलला की मूर्ति स्थापित होने के बाद केन्द्र की नेहरू सरकार और उत्तर प्रदेश की पंत सरकार के पैरों तले जमीन खिसक गयी। उस समय भारत का संविधान लागू नहीं हुआ था। लेकिन पंडित नेहरू को अपनी और सरकार की छवि की चिंता थी। उन्होंने उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविंद वल्ल्भ पंत को यथास्थिति बहाल करने का फरमान सुनाया। सीएम पंत ने मुख्य सचिव भगवान सहाय को यह जिम्मवारी सौंपी। उस समय फैजाबाद (अयोध्या) के जिलाधिकारी पद पर दक्षिण भारत के केक नायर तैनात थे। उन्हें मुख्य सचिव ने लिखित आदेश दिया की पहले की स्थिति बहाल करने के लिए रामलला की मूर्ति वहां से हटायी जाए। उन्हें बल प्रयोग की खुली छूट दी गयी। केके नायर बहुत सुलझे हुए अधिकारी थे। उन्होंने मुआयना करने के बाद अपने जवाब में कहा कि अभी अयोध्या में ऐसा कोई साधु या पंडित नहीं है जो रामलला की मूर्ति को हटाने के लिए राजी हो। प्राण प्रतिष्ठा वाली मूर्ति को हटाने के लिए एक विहित धार्मिक प्रक्रिया होती है। अगर इसका पालन किये बगैर मूर्ति हटायी गयी तो कानून व्यवस्था की गंभीर स्थिति पैदा हो जाएगी। फिर अफसरों या पुलिसकर्मियों की जान खतरे में पड़ जाएगी। इसलिए इस मामले में सोचविचार कर फैसला लिया जाए। लेकिन सरकार मूर्ति हटाने पर अड़ी रही। तब जिलाधिकारी के के नायर ने मुख्य सचिव से कहा कि सरकार चाहे तो उनका इस्तीफा ले ले लेकिन वे ये काम नहीं कर सकते। उन्होंने सुझाव दिया चूंकि यह संवेदनशील मामला है इसलिए इसे कोर्ट पर छोड़ देना चाहिए। सरकार अभी विवादित स्थल के चारो तरफ लोहे की जाली से घराबंदी कर गेट पर सीलबंद ताला लगा दे। गेट से कोई रामलला के दर्शन तो करेगा लेकिन वह अंदर जाकर पूजा नहीं कर सकेगा। जब पूजा नहीं होगी तो कोई समस्या नहीं होगी। सरकार ने इस सुझाव को मान लिया। विवादित स्थल के परिसर में ताला लग गया। मामला कोर्ट में चलता रहा। 1975 में बिहार के रहने वाले रामचंद्र दास दिगम्बर अखाड़ा के महंत बन चुके थे। 1985 उन्होंने रामजन्म भूमि स्थान का ताला को खोलने के लिए आंदोलन शुरू किया। इस ताला खोलो आंदोलन से राजीव गांधी की सरकार दवाब में आ गयी। आखिरकार 1 फरवरी 1986 को यह बंद ताला खुल गया। राममंदिर आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाने का बाद बाब अभिराम दास की 1981 में मौत हो गयी। दरभंगा के रहने वाले बाबा अभिराम दास को रामजन्म भूमि का उद्धारक कहा जाता है। जब कि बाबा रामचंद्र दास परमहंस का निधन 2003 में हुआ था। उस समय उनकी उम्र 94 साल थी। आखिरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद अयोध्या में राम मंदिर बनना तय हुआ।
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