महंत रामचंद्र दास परमहंस: जिन्हें अयोध्या में आज हर कोई जरूर याद कर रहा होगा
नई दिल्ली- अयोध्या में आज (5 अगस्त, 2020) से राम जन्मभूमि पर भव्य राम मंदिर के निर्माण का कार्य शुरू हो गया है। लेकिन, इस असीमित खुशी और उल्लास के मौके पर एक शख्सियत की गैर-मौजूदगी का एहसास सबको कचोट रहा है। वे हैं राम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन के पहले अगुवा (जिनका नाम और कार्य लिखित रूप से मौजूद है) महंत रामचंद्र दास परमहंस, जिन्होंने वीएचपी और बीजेपी के जन्म से भी पहले ही इस आंदोलन का बिगुल बजा दिया था। यही वजह है कि अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए भूमि पूजन और आधारशिला समारोह में उनकी मौजूदगी हर जगह महसूस की जा रही है। श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र न्यास ने उनकी अहमियत को समझते हुए उन्हें वह सम्मान देने की कोशिश की है, जिसके वह हकदार हैं।
राम मंदिर के लिए अपना जीवन खपा दिया
5 अगस्त, 2020 यह वो तारीख है, जब अयोध्या में पवित्र राम जन्मभूमि पर रामलला के भव्य मंदिर के निर्माण की नींव पड़ चुकी है। भगवान राम में आस्था रखने वाले दुनियाभर के लोगों को यह दिन इसलिए देखना नसीब हुआ है, क्योंकि इसके लिए हजारों-लाखों राम भक्तों ने अपने खून-पसीने बहाए हैं, राम जन्मभूमि की मुक्ति के लिए अपना पूरा जीवन खपा दिया है। उनकी त्याग और तपस्या की बदलौत ही मौजूदा और आने वाली पीढ़ी को राम के जन्म स्थान पर उनका मंदिर देखने का सौभाग्य मिलने जा रहा है। इन्हीं राम भक्तों में से एक हैं महंत रामचंद्र दास परमहंस, जो 1913 में बिहार के एक गांव में पैदा हुए और उनके माता-पिता ने उनका नाम चंद्रेश्वर तिवारी रखा। लेकिन, कुछ ही वर्ष बाद वे अयोध्या चले आए और दिगंबर अखाड़ा से जुड़कर संन्यासी का जीवन जीने लगे और उन्हें परमहंस रामचंद्र दास के नाम से जाना जाने लगा।
6-7 दशकों तक आंदोलन के मुखर प्रतीक बने रहे
अयोध्या आंदोलन से महंत रामचंद्र दास परमहंस का 6-7 दशकों तक ऐसा नाता जुड़ा रहा कि वह 90 वर्ष की अवस्था में निधन के समय तक राम जन्मभूमि आंदोलन के सबसे मुखर प्रतीक बने रहे। यही वजह है कि जब अब से 17 साल पहले 1 अगस्त, 2003 को अयोध्या में सरयू के तट पर उनका अंतिम संस्कार हो रहा था, तब भारी बारिश के बीच देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भी सरयू तट पर मौजूद थे। निधन के वक्त तक रामचंद्र दास दिगंबर अखाड़ा के महंत के साथ-साथ राम जन्मभूमि न्यास के भी अध्यक्ष पद पर विराजमान थे। उनका मंदिर आंदोलन में क्या प्रभाव था, इसका सबूत देश के प्रधानमंत्री की मौजूदगी में सरयू तट पर गूंज रहे 'राम लला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे' के नारों के माध्यम से प्रकट हो रहा था। राम भक्तों की भावना का सम्मान करते हुए अटल जी ने भी राम मंदिर के निर्माण के भारतीय जनता पार्टी का वादा दोहराना नहीं भूले। राम भक्तों के लिए यह सुखद संयोग है कि 17 वर्ष बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को वह सौभाग्य मिला।
संत भी थे और जुझारू भी
राम जन्मभूमि आंदोलन में महंत रामचंद्र दास परमहंस की भूमिका एक महान संत होने के साथ-साथ एक जुझारू ऐक्टिविस्ट की भी रही। वह ऐसे महात्मा थे, जिनमें धार्मिक मूल्यों के प्रति पूर्ण समर्पण तो था ही, मंदिर मुद्दे पर एक गजब की आक्रमकता भी थी। उनकी मुहंतोड़ जवाब देने वाली भरपूर ऊर्जा शक्ति से ओत-प्रोत उनकी छवि के कारण ही वे 'प्रतिवादी भयंकर' के टाइटल से भी जाने जाते थे। दास की शख्सियत ही ऐसी थी कि वह साधु होने के नाते धार्मिक कार्यों में तो रमे ही रहते थे, वह सामाजिक कार्यों के प्रति भी उतने ही ज्यादा सक्रिय थे। ऐतिहासिक दस्तावेजों में इस बात का जिक्र है कि 1947 में जब देश स्वतंत्र हुआ तो वे फैजाबाद के हिंदू महासभा के अध्यक्ष हुआ करते थे। यह लगभग वही समय था, जब 9 नवंबर, 2019 को आखिरी फैसला आने से पहले तक चले राम मंदिर-बाबरी मस्जिद का कानूनी विवाद शुरू हुआ था।
22-23 दिसंबर,1949 की घटना के बाद चर्चा में आए
22-23 दिसंबर,1949 की रात जब भगवान रामलला बाबरी मस्जिद के मुख्य गुंबद के नीचे अचानक प्रकट हुए (जैसा कि दावा किया जाता रहा है) तब वही फैजाबाद के हिंदू महासभा के अध्यक्ष थे। मस्जिद के अंदर राम लला की प्रतिमा के अचानक प्रकट होने में रामचंद्र दास परमहंस का रोल हमेशा से बहस का मुद्दा रहा है। हालांकि, 23 दिसंबर,1949 को सुबह 9 बजे जो एफआईआर दर्ज हुई, उसमें उनका नाम नहीं था। अलबत्ता अभिराम दास, रामसकल दास और सुदर्शन दास जैसे उनके करीबियों और करीब 50 अज्ञात लोगों का नाम जरूर दर्ज किया गया था। इनमें से अभिराम दास भी हिंदू महासभा से जुड़े थे। लेकिन, वर्षों बाद एकबार रामचंद्र दास परमहंस ने यह दावा करके जरूर खलबली मचा दी थी कि दिसंबर, 1949 की घटना को उन्होंने ही अंजाम दिया था। गौरतलब है कि 22-23 दिसंबर,1949 की रात वाली घटना मंदिर-मस्जिद विवाद में बहुत बड़ी टर्निंग प्वाइंट मानी जाती है। न्यूयॉर्क टाइम्स का दावा है कि 1991 में दिए इंटरव्यू में महंत दास ने कहा था, 'मैं ही वह व्यक्ति हूं, जिसने मूर्ति मस्जिद के अंदर रखी।' हालांकि, बाद के दिनों में उन्होंने इस मसले को ज्यादा नहीं उछाला।
राम जन्मभूमि न्यास के आजीवन अध्यक्ष रहे
जाहिर है कि जब 1984 में विश्व हिंदू परिषद ने धर्म संसद आयोजित करके राम मंदिर निर्माण का अभियान शुरू किया तो महंत रामचंद्र दास परमहंस के रूप में उसे एक अगुवा सिपाही मिल गए, जो पिछले पांच दशकों से इसके लिए अपने दम पर झंडा बुलंद कर रहे थे। यही वजह है जब आगे के वर्षों में राम मंदिर आंदोलन की धार तेज हुई और राम जन्मभूमि न्यास का गठन हुआ तो रामचंद्र दास उसके अध्यक्ष बनाए गए और जीवनभर इस पर विराजमान रहे। 1986 के फरवरी में जब अदालत के आदेश पर राम मंदिर का ताला खुला और टाइटल सूट फैजाबाद से इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच में शिफ्ट हुआ तो उन्होंने भी एक याचिका दायर की। लेकिन, जब भगवान रामलला विराजमान के 'सखा' देवकी नंदन अग्रवाल की ओर अर्जी लगाई गई तो दास ने अपनी याचिका वापस ले ली।
हाशिम अंसारी से थी गहरी दोस्ती
आजादी के बाद जिस समय से रामचंद्र दास राम जन्मभूमि को मुक्ति दिलाने के लिए सक्रिय हो रहे थे, उनकी गोरखपुर के गोरखनाथ पीठ के महंत दिग्विजय नाथ से भी धनिष्ठता हो चुकी थी। यह वही मठ है, जिससे यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जुड़े हुए हैं। दस्तावेजों में भी यह प्रमाण मिलते हैं कि राम जन्मभूमि के मसले पर गोरखनाथ पीठ और महंत परमहंस दास में बहुत ही निकटता बनी हुई थी। लेकिन, राम मंदिर और हिंदुत्व की विचारधारा के प्रति इतना समर्पण का यह मतलब कतई नहीं था कि दूसरे मतों से उनकी किसी तरह की दूरी थी। अयोध्या में आज भी उनके और बाबरी मस्जिद के मुख्य मुस्लिम पक्षकार हाशिम अंसारी की दोस्ती के किस्से खूब प्रचलित हैं। धार्मिक और वैचारिक मतभेद के बावजूद उनके मन में भरपूर सामाजिक सामंजस्य का भाव भरा हुआ था।
श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र दिया जा रहा है पूरा सम्मान
आज महंत रामचंद्र दास परमहंस का वह सपना सच हो रहा है, जिसके लिए उन्होंने पूरी 20वीं सदी में संघर्ष किया। यही वजह है कि आज भी महंत परमहंस राम जन्मभूमि से अलग नहीं हुए हैं। उनकी प्रभु राम भक्ति यहां के कण-कण में मौजूद है, महसूस की जा सकती है। राम जन्मभूमि परिसर हो या कारसेवक पुरम या राम मंदिर कार्यशाला उनकी उपस्थिति हर जगह है और शायद हमेशा रहेगी।