सैंडी कोहेन से एक बातचीत
आपने भारत और अमरीका दोनों देखे हैं, दोनों देशों में फर्क क्या है?
गरीबी दोनों देशों में है। अमरीका में गरीबी जानलेवा नहीं होती, भारत में गरीब इंसान को अस्तित्व की लड़ाई लड़नी पड़ती है। स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी चीजें तो गरीब को दुर्लभ होती ही हैं उसे रहने के ठिकाने और भोजन के भी लाले पड़े रहते है। लेकिन कुंठा अमरीका में ज्यादा है, भारत में नहीं। भारत में जीवन के हर क्षेत्र में आध्यात्मिकता प्रमुख है इसलिए तकलीफ को बर्दाश्त करने की शक्ति ज्यादा होती है।
आपके
हिसाब
से
गरीबी
के
कारण
क्या
हैं?
सभी
बराबर
नहीं
पैदा
होते।
कुछ
मुल्कों
में
गरीबी
से
लड़ने
के
बहुत
सारे
नियम
कानून
हैं,
सरकारें
जिम्मा
लेती
हैं,
सामाजिक
जिम्मेदारी
होती
है।
इसलिए
गरीबी
की
मार
उतनी
भयानक
नहीं
होती
लेकिन
भारत
में
अभी
सरकारी
तौर
पर
ऐसी
कोई
तैयारी
नहीं
है
लिहाजा
दिक्कतें
ज्यादा
पेश
आती
हैं।
अमरीकी
लोगों
का
दिल
बहुत
बड़ा
है।
शायद
इसीलिए
वहां
आदमी
के
भूख
से
मरने
का
सवाल
ही
नहीं
होता
लेकिन
भारत
में
ऐसी
हालात
पैदा
हो
सकती
हैं।
इसीलिए
बहुत
सारी
कोशिश
की
जरूरत
है।
आपके
तीनों
ही
सेंटर
मुस्लिम
बहुत
इलाकों
में
हैं।
गरीब
मुस्लिम
परिवारों
की
मुश्किलें
आपको
औरों
से
किस
तरह
से
भिन्न
लगती
है?
गरीबी
इंसानियत
को
कमजोर
करती
है।
जैसा
मैंने
बताया
कि
भोजन
और
घर
की
बुनियादी
आवश्यकता
के
साथ
अगर
शिक्षा
और
स्वास्थ्य
उपलब्ध
हो
जाये
तो
गरीबी
खत्म
करना
संभव
होगा।
जहां
भी
हमारे
केंद्र
हैं,
मुसलमानों
के
परिवार
ज्यादा
हैं।
बाकी
समुदायों
के
लोग
भी
सेंटर
पर
आते
हैं।
हमारा
मानना
है
कि
गरीबी
हर
कम्युनिटी
में
है।
उसका
हल
भी
वहीं
होगा।
हमारी
कोशिश
है
कि
लोग
गांव
में
रहकर
ही
आत्मनिर्भर
बनने
की
कोशिश
करें
क्योंकि
गांवों
से
भागकर
शहरों
में
जाने
पर
जिंदगी
और
भी
मुश्किल
हो
जाती
हैं।
गांव
में
ही
जिंदगी
को
बेहतर
बनाने
की
कोशिश
की
जायेगी।
हम
किसी
को
कुछ
देने
नहीं
आए
हैं।
हम
तो
गाइड
हैं।
लोगों
को
अपनी
जिंदगी
खुद
ही
संवारनी
है।
इस
कार्यक्रम
को
चलाने
का
खर्च
कहां
से
आता
है?
शुरू
में
थोड़ा
बहुत
हमारे
संगठन
से
भी
लगाया
जाता
है।
कुछ
कारपोरेट
या
अन्य
स्रोतों
की
सहायता
भी
हो
सकती
है।
हम
कोशिश
करते
है
कि
कम्युनिटी
के
ही
लोगों
को
प्रशिक्षण
दिया
जाए
जो
उस
सेंटर
को
अपना
समझें
और
उसमें
उनकी
हिस्सेदारी
हो।
ऐसा
किसी
को
सोचने
नहीं
दिया
जाता
कि
पैसा
कहीं
से
आ
रहा
है।
परिवारों
की
क्षमता
का
विकास,
शिक्षा,
स्वास्थ्य
के
साथ-साथ
माइक्रोफाइनेंस
की
तरकीब
से
बहुत
छोटे
स्तर
के
उद्योगों
के
जरिए
भी
सेंटर
को
आत्म-निर्भर
बनाने
की
कोशिश
की
जाती
है।
हम
हमेशा
के
लिए
एक
सेंटर
पर
नहीं
रहेंगे,
उसको
चलाकर
उन्हें
आत्म
निर्भर
बनाकर
आगे
चले
जाएंगे।
हमारी
कोशिश
रहती
है
कि
केंद्र
आत्मनिर्भर
हो
जाए
और
गांव
के
लोग
उसे
आगे
भी
चलाते
रहें।
आपकी
आगे
की
क्या
योजना
है?
दो
तरह
से
आगे
बढ़ना
है।
पहला
तो
यह
कि
योजना
का
पूरी
तरह
से
विस्तार
किया
जाए।
इतने
लोगों
को
प्रशिक्षित
कर
दिया
जाए
कि
यह
काम
अपने
आप
चलता
रहे।
दूसरा
यह
कि
कारपोरेट
सेक्टर
को
इस
तरह
के
केंद्रों
को
चलाने
के
लिए
प्रेरित
किया
जाए।
हम
उनके
कंसल्टैंट
बनकर
उनके
काम
को
आगे
बढ़ा
सकते
है।
मसलन
स्टील
अथॉरिटी
की
योजना
है
कि
कुछ
मलिन
बस्तियों
में
इस
तरह
के
सेंटर
शुरू
हों।
मुंबई
के
बाहर
भी
इस
तरह
के
प्रयास
कुछ
कंपनियों
के
सहयोग
से
किए
जाने
की
तैयारी
है।
कई
संगठनों
से
फीजिबिलिटी
स्टडी
करने
के
भी
प्रस्ताव
हैं।
हमें
पूरा
भरोसा
है
कि
गरीबों
को
आत्म
निर्भर
बनाने
का
हमारा
मॉडल
सबको
स्वीकार्य
होगा।
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सैंडी
कोहेन
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[शेष नारायण सिंह वरिष्ठ राजनीतिक पत्रकार हैं।]