कायर, अपराधी और निर्दयी पुलिस
इसी तरह के और भी बहुत सारे तर्क दिए जाते थे। लेकिन अब बात बहुत आगे निकल चुकी है। राजनीति के अपराधीकरण के बाद बहुत सारे पुलिस वालों ने ऐसे काम भी किए हैं जो बड़े बड़े अपराधियों को पीछे छोड़ जाने के लिए काफी है। इसलिए ब्रिटिश पुलिस बनाम लोकतांत्रिक पुलिस का तर्क बेमतलब है।
कई राज्य सरकारों में ऐसे मंत्री हैं जो कई घृणित अपराधों के मुलजिम हैं, कई मंत्रियों पर हत्या, लूट, डकैती, बलात्कार, आगजनी जैसे मुकदमे चल रहे हैं। लोकतंत्र में मंत्री ही सत्ता का मुखिया होता है, वही सरकार होता है। अगर वह अपराधी है तो लोकतंत्र के तबाह होने के खतरे बढ़ जाते हैं।
लोक प्रतिनिधित्व कानून और संविधान में ऐसे प्रावधान नहीं हैं कि किसी अपराधी को चुनाव लड़ने से रोका जा सके। बाद में कुछ संशोधन आदि करके बात को कुछ संभालने की कोशिश की गई है लेकिन वह अपराधियों को संसद या विधानसभा में पहुंचने से रोकने के लिए नाकाफी है। दरअसल संविधान के निर्माताओं ने यह नहीं सोचा था कि एक दिन ऐसा भी आएगा कि अपराधी भी चुनाव लड़ने लगेगा। उनकी सोच थी कि अव्वल तो अपराधी चुनाव लड़ने की हिम्मत ही नहीं करेगा और अगर लड़ता भी है तो जनता उसे नकार देगी।
ऐसा हुआ नहीं। जातिपांत के दलदल में फंसे समाज में अपराधी स्वीकार्य होने लगा और एक समय तो ऐसा आया कि उत्तरप्रदेश विधानसभा में बड़ी संख्या में अपराधी पहुंचने लगे। जाहिर है कि प्रशासन का स्तर गिरना था, सो गिरा। लेकिन पुलिस को अपनी सेवा की शर्तों के हिसाब से काम करना चाहिए।
पुलिस,
अपराधी
और
राजनीति
जब
पुलिस
का
अधिकारी
नौकरी
में
आता
है
तो
संविधान
को
पालन
करने
की
शपथ
लेता
है
किसी
नेता
की
चापलूसी
करने
की
शपथ
नहीं
लेता
लेकिन
नेताओं
की
हां
में
हां
मिलाने
वालों
की
पुलिस
फोर्स
में
हो
रही
भरमार
की
वजह
से
देहरादून
जैसी
घटनाएं
थोक
में
हो
रही
है
जोकि
अक्षम्य
अपराध
की
श्रेणी
में
आती
हैं।
अपने
देश,
खासकर
उत्तराखंड
और
उत्तरप्रदेश
में
पुलिस
प्रशासन
की
हालत
बहुत
खराब
है।
राज्य
में
पुलिस
की
लीडरशिप
बिलकुल
कमजोर
है।
बड़े
अफसर
अपराध
के
कम
करने
के
लिए
दबाव
तो
बनाते
हैं
लेकिन
इंगेजमेंट
के
नियमों
का
पालन
नहीं
करवाते।
अपराधियों
को
खत्म
करने
के
लिए
फर्जी
मुठभेड़
का
सहारा
लेते
हैं।
कुछ
मामलों
में
तो
अपराधियों
से
ही
दूसरे
अपराधी
को
मरवाते
हैं।
एक जो सबसे खराब बात सिस्टम में आ गई है कि अगर कोई अपराधी मारा जाता है तो आउट ऑफ टर्न प्रमोशन की कल्चर के तहत अपराधी को मारने वाला प्रमोशन पा जाता है। कई बार उसे पुरस्कार भी मिल जाता है। फर्जी मुठभेड़ के मामलों में सबसे ज्यादा योगदान प्रमोशन-एवार्ड कल्चर का है। इसके चलते चालू किस्म के पुलिस वाले जल्दबाजी में पड़कर निर्दोष लोगों को भी मार देते है। सबसे बड़ी जो गलती हो रही है, वह यह कि पुलिस वाले ठीक से मुखबिरों का विकास नहीं कर रहे है। निजी दुश्मनी के चलते कभी-कभी मुखबिर निर्दोष लोगों को मरवा देते हैं। जिले में तैनात पुलिस अधिकारियों को चाहिए कि मुखबिर व्यवस्था के विकास के लिए विभाग की तरफ से जो नियम बनाए गए हैं उसका पालन करवाएं। इनकाउंटर में भी रूल्स ऑफ इंगेजमेंट हैं।
देहरादून में हुए रणबीर के क़त्ल में पुलिस प्रशासन की हर प्रक्रिया का उल्लंघन किया गया है। लड़के के शरीर पर ऐसे घाव हैं जो उसके ज़िंदा रहते उसे पुलिस प्रताड़ना के दौरान दिए गए थे। लगता है कि किसी गलत मुखबिरी के चक्कर में रणबीर को पकड़ लिया गया था और जब उसको इतनी प्रताड़ना दी गई कि उसके बचने की उम्मीद नहीं रह गई तो उसे इनकाउंटर दिखाकर गोलियों से भून दिया गया। यह अक्षम्य अपराध है। इन पुलिस वालों से पूछा जाना चाहिए कि उनके अपने बच्चों के साथ ऐसा व्यवहार हो, तो उन्हें कैसा लगेगा।
देहरादून की घटना पुलिस प्रशासन की सरासर असफलता है और इसकी सभ्य समाज के लोगों को कड़े से कड़े शब्दों में निंदा करनी चाहिए और राज्य सरकार को चाहिए कि जिम्मेदार पुलिस वालों को दंडित करें और कमजोर अफसरों को हटाकर योग्य पुलिस वालों को तैनात करें। दंड भी ऐसा हो कि भविष्य में पुलिस वालों की हिम्मत न पड़े कि किसी निर्दोष बच्चे को बेरहमी से पीटें और उसकी जान ले लें।