महिला आरक्षण विधेयक पर सुलगता असंतोष
विरोध का असली मुद्वा है प्रस्तावित महिला आरक्षण विधेयक में कोटे के अंदर कोटा के प्रावधान का न होना। नीतीष कुमार को छोड़ दिया जाये तो लगभग मंडल युग के सारे नेता मंडल की तर्ज पर महिलाओं को आरक्षण देने के मुद्वे पर भी कोटे के अंदर कोटे की व्यवस्था की वकालत कर रहे हैं अर्थात महिलाओं को पुनष्चः पिछड़ों और अल्पसंख्यकों में बाँटना इनकी मंशा है। इन्हीं के नक्षेकदम पर चलते हुए मायावती अनुसूचित जाति की महिलाओं को उनका हक दिलवाना चाहती हैं, तो ममता बनर्जी मुस्लिम महिलाओं को उनका हक दिलाने के लिए लड़ाई लड़ रही हैं। सभी अपने-अपने तरीके से मसीहा बनने की जुगत में हैं।
चूँकि बिहार में महिलाओं को पहले से ही 50 प्रतिषत पंचायतों में आरक्षण प्राप्त है। इसलिए नीतीष कुमार के लिए बेहतर यही था कि वे महिला आरक्षण के समर्थन में आगे आयें, जोकि उन्होंने किया भी। इससे उनकी भद भी नहीं पिटी और उनकी पहचान भी एक प्रगतिशील नेता के रुप में उभर कर सामने आई।
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शरद यादव के साथ-साथ अपनी पार्टी के अन्य नेताओं के साथ इस विषय पर नितीश कुमार का मतभेद होना भले ही आम आदमी के मन में सवाल उत्पन्न कर सकता है, पर नीतीश कुमार अच्छी तरह से जानते हैं कि लोहे को ठंडा होने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। सभी को कुर्सी की दरकार है। बेवजह मामले को तूल देकर कोई भी इससे असमय महरुम नहीं होना चाहेगा।
हाँ, भाजपा की स्थिति इस मसले पर जरुर सांप और छूछंदर जैसी है। महिला आरक्षण विधेयक को वह न तो उगल पा रही है और न ही निगल पा रही है। दरअसल वह महिला आरक्षण विधेयक को पास करवाने का सारा श्रेय कांग्रेस को अकेले ले जाते हुए किसी भी सूरत में नहीं देखना चाहती है। इस कारण पार्टी में व्याप्त भारी अंर्तिर्वरोध के बावजूद भी पार्टी के शीर्ष नेताओं सहित सभी भाजपा के सदस्यों ने राज्यसभा के कुछ सदस्यों को अलोकतांत्रिक तरीके से मार्शल द्वारा जबरन बाहर निकालने के बाद भी महिला आरक्षण विधेयक को राज्यसभा में पास करवाने में कांगे्रस का साथ दिया।
रहा कांग्रेस का सवाल तो वह जानती है कि जनता पहले से ही उससे मंहगाई और परमाणु बम के मसले पर नाराज है। मंहगाई को लेकर पूरा विपक्ष एकजुट है। इस संक्रमण के दौर में महिला आरक्षण विधेयक कांग्रेस के लिए किसी तुरुप के इक्के से कम नहीं है। लगभग सभी राजनीतिज्ञ पार्टियों की महिला आरक्षण विधेयक पर एक राय बनने के बाद वामपंथियों के पास विधेयक का समर्थन करने के अलावा कोई और विकल्प बचा नहीं था।
यह कहना कि महिला आरक्षण की संकल्पना को अमलीजामा पहनाने के बाद व्यवस्था में कोई फर्क नहीं आयेगा, गलत होगा ? पंचायत के चुनावों में महिलाओं के लिए सीट आरक्षित करने के बाद सिस्टम में बदलाव सपष्ट रुप से परिलक्षित हो रहा है। राजनीति में सभी महिला राबड़ी देवी की तरह रबड़ स्टाम्प बन कर नहीं रही हैं।
महिला आरक्षण विधेयक को मूल रुप में पारित करने के कारण पिछड़ों, दलितों और अल्पसंख्यकों को उनका हक नहीं मिल पायेगा, ऐसा मानना या कहना पूर्ण रुप से अतार्किक और अविश्वस्नीय है। वर्तमान लोकसभा में अनुसूचित जाति और जनजाति की महिलाओं की संख्या 17 है। महिला आरक्षण विधेयक पारित हो जाने के बाद यह संख्या बढ़कर 42 हो जायेगी।
पिछड़े वर्ग की महिलाओं में राजनीतिज्ञ जागरुकता पहले से ही है। आज की तारीख में लोकसभा में तकरीबन 30 प्रतिषत महिलाएँ पिछड़े वर्ग की हैं। उत्तरप्रदेष में कुल 28 महिलाएँ विधायक हैं। इनमें पिछडे़ वर्ग की महिलाओं की संख्या 9 है। महिला आरक्षण बिल पास हो जाने के बाद निःसंदेह पिछडे़ वर्ग की महिलाओं की नुमाइंदगी विधानसभा और लोकसभा में और भी बढ़ेगी। मुस्लिम महिलाओं ने जरुर अभी तक विधानसभा और लोकसभा में बहुतायात संख्या में दस्तक नहीं दिया है, पर इसके पीछे उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति ज्यादा जिम्मेदार है। वक्त के साथ उनकी अवस्था में भी सकारात्मक सुधार आयेगा।
सच्चर कमेटी की रिर्पोट में मुस्लिम महिलाओं की बदहाल अवस्था पर प्रकाश डाला गया है। इस कारण महिला आरक्षण में कोटे के अंदर कोटे की वकालत करने वाले नेता अपनी बात को तार्किक बनाने के लिए इस रिर्पोट का हवाला दे रहे हैं, परन्तु खुद श्री राजेन्द्र सच्चर अब अपनी रिर्पोट से इत्तिफाक नहीं रखते हैं। उनका कहना है कि जाति और धर्म के कारण विधानसभा और लोकसभा में स्थान पाने की अपेक्षा अपने बलबूते पर सामाजिक और विकासात्मक काम करके वहाँ पहुँचना ज्यादा अच्छा एवं मन को सुकून देने वाला कार्य होगा और वास्तविक रुप में मुस्लिम महिलाएँ इस मामले में मुस्लिम पुरुषों से बहुत आगे हैं।
कुछ लोगों का मानना है कि महिला आरक्षण विधेयक से जुड़ा सबसे बड़ा नकारात्मक तथ्य है- रोटेशन पद्वति का प्रावधान। इसका तात्पर्य है, एक बार विधायक या सांसद बनने वाली महिला लगातार दूसरी बार तुरंत विधायक या सांसद नहीं बन पायेगी। दूसरी बार दूसरी महिला को मौका दिया जायेगा, लेकिन इसका अर्थ यह कदापि नहीं होगा कि दूसरी बार वह विधायक या सांसद बन ही नहीं पायेगी। बस इसके लिए उम्मीदवार को इंतजार करना पड़ेगा। इससे फायदा यह होगा विधायक या सांसद बनने वाली महिला और उसकी पार्टी दोनों ही जिम्मेवारी पूर्वक विकास का काम कर पायेंगे। काम ठीक नहीं करने पर भूतपूर्व विधायक या सांसद हमेषा के लिए भूतपूर्व बन जायेंगे।
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लगभग 14 सालों के उपरांत महिला आरक्षण विधेयक ने पहली बाधा को पार कर लिया है। यह निश्चित रुप से एक बड़ी उपलब्धि है। पर यह जीत तब तक अधूरी है, जब तक यह विधेयक लोकसभा में पास नहीं हो जाता है। भाजपा की तरह कांग्रेस के अंदर भी इस मुद्वे को लेकर काफी मतभेद है, पर सोनिया गाँधी की इस मसले पर गंभीरता को देखकर बागी कांग्रेसी अपने बागी तेवर नहीं दिखा पा रहे हैं।
राजीव गाँधी पूर्व में महिलाओं को पंचायतों में आरक्षण दिलवा चुके हैं। इसलिए अब सोनिया गाँधी भी अपनी पति की तरह महिला आरक्षण विधेयक को पारित करवाने का श्रेय लेना चाहती हैं। फिलहाल तो महिला आरक्षण बिल को फिर से ठंडे बस्ते में डालने की कवायद की जा रही है। डर का मूल कारण है-मंहगाई पर पूरे विपक्ष की एकता। लिहाजा वित विधेयक को पास करवाने में कहीं सरकार की किरकिरी न हो जाये। इस बात से डरकर कांग्रेस के अंदर भी महिला बिल को मार्च के महीने में पेष करने की हिम्मत नहीं है। शायद अब यह बिल लोकसभा में अप्रैल में पेश किया जायेगा।
लेखक
परिचय-
श्री सतीष सिंह वर्तमान में स्टेट बैंक समूह में एक अधिकारी के रुप में दिल्ली में कार्यरत हैं और विगत दो वर्षों से स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। 1995 से जून 2000 तक मुख्यधारा की पत्रकारिता में भी इनकी सक्रिय भागीदारी रही है। श्री सिंह दैनिक हिन्दुस्तान, हिन्दुस्तान टाइम्स, दैनिक जागरण इत्यादि अख़बारों के लिए काम कर चुके हैं। श्री सिंह से मोबाईल संख्या 09650182778 के जरिये संपर्क किया जा सकता है।