क्विक अलर्ट के लिए
अभी सब्सक्राइव करें  
क्विक अलर्ट के लिए
नोटिफिकेशन ऑन करें  
For Daily Alerts
Oneindia App Download

किराये की कोख से जुड़े सवाल

By सतीष कुमार सिंह
Google Oneindia News

Surrogate Mother
प्रकृति के साथ बार-बार छेडछाड़ करना अब इंसानी फितरत बन चुका है। विकास की आड़ में प्रकृति के संतुलन को असंतुलित करना वह अपना जन्मसिद्व अधिकार मानने लगा है। हालत इतने गंभीर हैं कि इंसानों के क्लोन बनाने की कवायद भी पर्दे के पीछे चल रही हैं। हमारे डी- एन- ए के साथ छेड़-छाड़ करने में वैज्ञानिकों को कोई गुरेज नहीं है। इन सबके बीच किराये की कोख की प्रथा भारत में चलन में आ चुकी है।

एक गरीब देष होने के कारण अमीर देष के नि:संतान दंपित्त भारत आकर यहाँ के जरुरतमंद महिलाओं की कोख को किराये पर ले रहे हैं। यह सिलसिला भारत में लगभग 5 वर्षों से चल रहा है। फिर भी इस संबंध में अभी तक किसी स्पष्ट दिषा-निर्देष का अभाव है।

जरुरतमंद नि:संतान दंपित्त महिलाओं से दलालों के द्वारा संपर्क साधते हैं। जब दोनों तरफ से आपसी सहमति बन जाती है तो एक समझौतानामा पर दोनों पक्ष दस्तखत करते हैं। इस समझौते के शर्त्त के अनुसार बच्चे के जन्म के बाद जन्म देने वाली माँ बच्चे से पुन: संपर्क स्थापित नहीं कर सकती है।

कहते हैं कि बच्चा माँ का ही एक अंग होता है। वह माँ की खून से सिंचित होता है। पर सरोगेसी तकनीक ने स्थापित माप-दंडों एवं मूल्यों को ध्वस्त कर दिया है। एक काली माँ बिना किसी गोरे से जिस्मानी रिष्ता कायम किये सुनहले बाल, नीली आँख और दूध से भी ज्यादा गोरे बच्चों की माँ बन रही है।

भावनाएं गायब

अब माँ का गर्भाषय एक थैली बनकर रह गया है। इस थैली को हम मषीन की संज्ञा दे सकते हैं। एक गरीब औरत बार-बार बच्चे को जन्म दे रही है। उसके मन में बच्चे के प्रति न तो कोई भावना है और न ही कोई संवेदना।

गुजरात में किराये पर अपनी कोख देने के लिए तैयार औरतों की संख्या सैकड़ों में है। इस तरह की माँ घर से बहुत दूर रहती हैं। उन्हें बच्चे पैदा करने से पहले तक घर जाने की इजाजत नहीं रहती है। प्रतिदिन रुटीन चेकअप और सप्ताह में एक बार डॉक्टर उनका विषेष चेकअप करते हैं।

सरोगेसी मदर को रोज सावधनी बरतने कि हिदायत दी जाती है और जरुरी दवाईयां समयानुसार मुहैया करवायी जाती है। लेकिन इन सबके बीच उनका ही ध्यान नहीं रखा जाता है। उनके स्वयं के टहलने के लिए वहाँ र्प्याप्त जगह तक नहीं होती है।

पर नियमित रुप से महीने के अंत में उन्हें मासिक तनख्वाह दी जाती है जिसे उनके पति आकर ले जाते हैं। वैसे वे सप्ताह में एक बार अपनी पत्नी से आकर मिल सकते हैं।

जैसे ही वे बच्चे को जन्म देती हैं, उसके कुछ ही दिनों के बाद बच्चा विदेष चला जाता है। बच्चे की याद उनके मन-मस्तिष्क में जिंदा रहे, इसके लिए उसे बच्चे की कुछ तस्वीर दे दी जाती है और कुछ मामलों में वह भी उनको नसीब नहीं होता है। एक कागज पर लिखकर बच्चे का पता, बाप का ई मेल एड्रेस और दूरभाष संख्या उसे दे दिया जाता है जिसे वह पढ़ भी नहीं सकती है।

मोटी तनख्वाह

कुछ माँ किराये की कोख से अर्जित पैसे से अपनी गृहस्ती संवार लेती है, किन्तु कुछ के पति पैसों को जुए और शराब में उड़ा देते हैं। आज की तारीख में सिर्फ गुजरात में ही 500 से अधिक माँ अपनी कोख में विदेषियों के बच्चों को पाल रही हैं। तकरीबन 200 किराये की माँ ऐसे बच्चे को जन्म दे चुकी हैं।

इस तरह के मामलों में अभी तक डॉक्टर किसी तरह की जिम्मेदारी लेने से बचते रहे हैं। वे इस तरह की सुविधा मोटी फीस लेकर विदेषियों को मुहैया तो करवा रहे है पर इसे वे व्यापार की बजाए सेवा भाव और पुण्य का कार्य मानते हैं।

उनका कहना है कि उनका सरोकार सिर्फ गरीब माँ जो अपना कोख किराये से देती है से होता है। इसलिए वे यहाँ तक ख्याल रखते हैं कि कोख के किराये का पैसा कोख किराये पर देने वाली माँ के परिवार की बेहतरी में खर्च हो। वे अपने कार्य को गैरकानूनी या अवैधानिक मानने को तैयार नहीं हैं, पर इसके बरक्स में आज विवाद का बाजार गर्म है। समाज का एक वर्ग उन्हें इस मामले में क्लीन चिट देने के लिए कत्तई तैयार नहीं है।

तस्वीर का दूसरा पहलू कानून से हटकर उन दंपत्तियों की बातें करता है जो बरसों से नि:संतान हैं। अगर उनका पक्ष देखा जाये तो किराये के कोख का व्यापार आपको पूर्ण रुप से प्रासंगिक लग सकता है।
किराये से अपना कोख उपलब्ध करवाने वाली माओं की आर्र्थ्काि हालात इतनी खराब है कि वे अपने परिवार का लालन-पालन करने में सक्षम नहीं हैं। आज की तारीख में कोख का किराया उनके लिए संजीवनी का काम कर रहा है।


कानून की उलझन अभी बरकरार है। क्योंकि इस संबंध में कोई भी स्पष्ट कानून हमारे कानून विषेषज्ञों के पास नहीं है। बच्चे की राष्ट्रीयता, किराये पर कोख उपलब्ध करवाने वाली माँ का बच्चे पर हक इत्यादि कुछ ऐसे मुद्वे हैं जिनपर व्यापक चर्चा और उसकी विषद व्याख्या करने की जरुरत है।

गुजरात के इस तरह के मामलों के विषेषज्ञ डॉ पंकज पटेल कानून विषेषज्ञों की इस संबंध में ड्राफ्टॅ बिल बनाने में मदद कर रहे हैं। वे अब तक नि:संतान दंपत्तियों के लिए कानूनी दस्तावेज तैयार करते रहे हैं।

किराये के कोख से पैदा हुए बच्चों के बाबत तैयार होने वाले ड्राफ्टॅ बिल का स्वरुप कैसा होगा इस संबंध में अभी शंकाओं का बाजार चर्चा में है। बहुत तरह की विचारधारा एक साथ अपनी अस्मिता की लड़ाई लड़ रही है। बावजूद इसके अधिकांष लोग इस बात पर सहमत हैं कि नि:संतान एन- आर- आई और विदेषी दंपत्ति संतान सुख से वंचित न रहें। क्योंकि इससे दोनों पक्ष लाभान्वित हो रहे हैं। कानूनी उलझन और जन्म देने वाली माँ के मन में भावनात्मक जद्वोजहद जो भी हो, पर इस बात से कोई असहमत नहीं होगा कि किराये के कोख से गरीब का भला हो रहा है। अगर ऐसा नहीं होता तो किराये से अपना कोख उपलब्ध करवाने के लिए गुजरात में गरीब महिलाओं के बीच होड़ नहीं लगी रहती। भारत लोकतांत्रिक देष जरुर है लेकिन वह अपने सामाजिक कर्त्तव्यों को पूरा करने में असफल रहा है।

नागरिकता का मामला

जर्मन दंपित्त के कानून के पचड़े में पड़ने वाली खबर अभी तक हमारे जहन में ताजा है। जर्मन दंपित्त को किराये की कोख की मदद से जुड़वा बच्चे हुए थे। इन बच्चों को अहमदाबाद पासपोर्ट ऑफिस ने भारतीय मानने से इंकार कर दिया था। इस कारण जुड़वा बच्चों के नाम से पासपोर्ट जारी नहीं हो सका था। मामला इतना उलझ गया था कि इन नवजात बच्चों को न तो भारत अपना नागरिक मान रहा था और न ही जर्मनी। दरअसल जर्मनी अपने नागरिकों के लिए सरोगेसी को संतान के विकल्प के रुप में नहीं स्वीकार करता है।

इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गुजरात हाईकोर्ट के निर्णय के संबंध में पिछले पखवाड़े में दिया गया निर्णय दिलचस्प है। जर्मन दंपित्त के जुड़वा बच्चों को अहमदाबाद पासपोर्ट ऑफिस के द्वारा पासपोर्ट नहीं देने के मामले में गुजरात हाईकोर्ट के निर्णय को अपने निर्णय के द्वारां सर्वोच्च न्यायालय ने पलट दिया था।

उल्लेख्यनीय है कि गुजरात हाईकोर्ट ने जुड़वा बच्चों के पक्ष में निर्णय दिया था, ंकंतु सर्वोच्च न्यायालय ने गुजरात हाईकोर्ट के निर्णय को उलटते हुए कहा कि सरोगेसी पद्वत्ति से उत्पन्न बच्चे को सिर्फ वस्तु माना जा सकता है। अत: इस संबंध में एक स्पष्ट कानूनी प्रावधान की आवष्यकता है।

हाल ही में जापानी डॉक्टर इफुकूम यामादा ने सरोगेसी तकनीक की सहायता से भारत आकर एक बच्चे के बाप बनने का सुख तो प्राप्त कर लिया था, लेकिन उनकी पत्नी ने उस बच्चे को स्वीकार करने से मना कर दिया था। इतना ही नहीं भारतीय पासपोर्ट ऑफिस ने भी बच्चे को पासपोर्ट देने से मना कर दिया था।

नियमानुसार पासपोर्ट पर बच्चे के माँ का नाम भी होना चाहिए। किंतु डॉक्टर इफुकूम यामादा की पत्नी द्वारा बच्चे को अपनाने से इंकार करने के बाद मामला पेचीदा हो गया। अंतत: महीनों के संघर्ष के बाद बच्चे को जापानी सरकार ने उसे अपनी नागरिकता प्रदान की। तब जाकर कहीं बच्चा जापान जा पाया।

यह मसला बहुत ही गंभीर और महत्वपूर्ण है। आज नानी अपनी नि:संतान बच्ची के लिए सरोगेसी पद्वत्ति का सहारा ले रही है। इस बाबत फेहरिस्त लंबी है। बहन अपनी बहन के लिए, सास अपनी बहु के लिए सरोगेसी का इस्तेमाल कर रहे हैं। अगर हम इस पद्वत्ति के सहारे आगे बढेंगे तो रिष्तों का ऐसा मायाजाल हमारे सामने आयेगा, जिसके अंदर हमारा दम घुट कर रह जायेगा। पर इसके साथ यह भी सच है कि इस तकनीक ने नि:संतान दंपत्तियों के लिए स्वर्ग का दरवाजा खोल दिया है और गरीबों के लिए अमृत का सबब बन चुका है

विज्ञान हमारे उर्वर दिमाग की ऊपज है। यह हमारी सर्वश्रेष्ठता को सिद्व करता हैै। पर इसका यह अर्थ यह नहीं है कि हम प्रकृति के स्थापित नियमों से छेड़छाड़ करें। लगातार गर्म होता हमारा वायुमंडल और मौसम का बदला मिजाज हमें अपने इस तरह के कृत्यों से बाज आने का संकेत दे रहा है। जरुरत यह है कि हम वक्त रहते संभल जायें, अन्यथा हमारी मौत के बाद हमारी कब्र पर मर्सिया पढ़ने के लिए शायद ही कोई जीवित रहेगा।


सतीष सिंह

श्री सतीष सिंह वर्तमान में स्टेट बैंक समूह में एक अधिकारी के रुप में दिल्ली में कार्यरत हैं और विगत दो वर्षों से स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। 1995 से जून 2000 तक मुख्यधारा की पत्रकारिता में भी इनकी सक्रिय भागीदारी रही है। श्री सिंह दैनिक हिन्दुस्तान, हिन्दुस्तान टाइम्स, दैनिक जागरण इत्यादि अख़बारों के लिए काम कर चुके हैं।

Comments
देश-दुनिया की ताज़ा ख़बरों से अपडेट रहने के लिए Oneindia Hindi के फेसबुक पेज को लाइक करें
For Daily Alerts
तुरंत पाएं न्यूज अपडेट
Enable
x
Notification Settings X
Time Settings
Done
Clear Notification X
Do you want to clear all the notifications from your inbox?
Settings X
X