संकीर्णता-आधुनिकता के बीच झूलता भारतीय समाज
सच तो यह है कि हम सब के अन्दर कहीं न कहीं जातिवाद और धर्म इतना गहरे पैठ चुका है कि उससे बाहर आना नहीं चाहते। जो बाहर आना चाहता है, उसका हश्र निरुपमा जैसा होता है। निरुपमा के मां-बाप जैसे लोग कहने को तो आधुनिक और प्रगातिशील बनते हैं, लेकिन इनकी विचार धारा तालिबान से ज्यादा बुरी है। लेकिन यही लोग तालिबान को दकियानूसी बताने में हिचकते नहीं है।
ये लोग जीवन शैली तो पाश्चात्य अपनाते हैं, लेकिन प्रेम और विवाह के मामले में घोर परम्परावादी और पक्के भारतीय संस्कृति के रखवाले बन जाते हैं। यह इक्कसवीं सदी चल रही है। इस सदी में वह सब कुछ हो रहा है, जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती थी। मीडिया ने समाज को पचास साल आगे कर दिया है। भारत में मल्टीनेशनल कम्पनियों की बाढ़ आयी हुई है। इन मल्टीनेशनल कम्पनियों में सभी जातियों और धर्मो की लड़कियां और लड़के कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रहे हैं। सहशिक्षा ले रहे हैं। साथ-साथ कोचिंग कर रहे हैं। इस बीच अन्तरधार्मिक, अन्तरजातीय और एक गोत्र के होते हुए भी प्रेम होना अस्वाभाविक नहीं है। प्रेम होगा तो शादियां भी होंगी। समाज और परिवार से बगावत करके भीे होंगी। अब कोई लड़की किसी गैर जाति लड़के से प्रेम कर बैठे तो उसकी जान ले लेना तालिबानी मानसिकता ही कही जाएगी।
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याद रखिए संकीर्णता और आधुनिकता एक साथ नहीं चल सकतीं। आजकल चल यह रहा है कि आधुनिकता की होड़ में पहले तो लड़कियों को पूरी आजादी दी जाती है। लड़कियों से यह नहीं पूछा जाता कि उन्होंने भारतीय लिबास को छोड़कर टाइट जींस और स्लीवलेस टॉप क्यों पहनना
शुरु
कर
दिया
है।
आप
ऐसे
लिबास
पहनने
वाली
किसी
लड़की
के
मां-बाप
से
यह
कह
कर
देखिए
कि
आपकी
लड़की
का
यह
लिबास
ठीक
नहीं
है
तो
वे
आपको
एकदम
से
रुढ़िवादी
और
दकियानूसी
विचारधारा
का
ठहरा
देंगे।
मां-बाप
कभी
अपनी
बेटी
का
मोबाइल
भी
चैक
नहीं
करते
कि
वह
घंटों-घंटों
किससे
बतियाती
रहती
है।
उसके
पास
महंगे
कपड़े
और
गैजट
कहां
से
आते
हैं।
जब
इन्हीं
मां-बाप
को
एक
दिन
पता
चलता
है
कि
उनकी
लड़की
किसी
से
प्रेम
और
वह
भी
दूसरे
धर्म
या
जाति
के
लड़के
से
करती
है
तो
उनके
पैरों
के
नीचे
से
जमीन
खिसकती
नजर
आती
है।
उन्हें
फौरन
ही
अपनी
धार्मिक
और
जातिगत
पहचान
याद
आ
जाती
है।
भारतीय
परम्पराओं
की
दुहाई
देने
लगते
है।
जैसे
निरुपमा
का
मामले
में
हुआ।
निरुपमा के मां-बाप उसको आला तालीम लेने दिल्ली भेजते हैं। निरुपमा एक प्रतिष्ठित अखबार में नौकरी करती है। लेकिन उसको किसी गैर जातीय लड़के से प्रेम करने की सजा इसी प्रकार दी जाती है, जैसे अफगानिस्तान में तालिबान देते हैं। उसे मार दिया जाता है। इंटरनेट ने दुनिया को छोटा किया है। सोशल नेटवर्किंग के जरिए भी प्यार की पींगें बढ़ रही है। कल का वाकया है। मेरठ के एक प्रतिष्ठित (भारत में पैसों वालों को ही प्रतिष्ठित कहा जाता है) की एक लड़की श्रुति लखनउ में आर्टिटेक्ट का कोर्स कर रही थी। उसका आखिरी साल था। ऑरकुट के जरिए इंदौर के एक लड़के से प्यार की पींगें बढ़ीं। लड़का गाहे-बगाहे लखनउ आने लगा। कल दोनों में किसी बात को लेकर नोंक-झोंक हुई।
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लड़की ने मॉल की चौथी मंजिल से कूदकर आत्महत्या कर ली। लड़के को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। श्रुति के मां-बाप को क्या पता था कि उनकी लड़की पढ़ाई के साथ और कौनसी 'पढ़ाई' कर रही है। उन्हें तो उसकी दूसरी 'पढ़ाई' का पता उसकी मौत की खबर के साथ ही लगा। जानते हैं श्रुति का प्रेमी कितना पढ़ा-लिखा था। मात्र बारहवीं फेल। बेराजगार। यहां यह सब कहने का मतलब यह कतई नहीं है कि लड़कियों को शिक्षा या नौकरी के बाहर भेजने पर पाबंदी आयद कर दी जाए। उन्हें कैद करके रखा जाए। कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि जमाना तेजी के साथ बदल रहा है। लड़कियां आत्मनिर्भर हुईं हैं तो उन्हें अपने अधिकार भी पता चले हैं। उदारीकरण के इस दौर में प्रेम और शादी के मामले में युवा उदार हुए हैं। लेकिन मां-बाप और भाई (भाई किसी दूसरे की बहन के साथ डेटिंग करने में बहुत उदार होते हैं) उदार होने को तैयार नहीं है।
कितनी ही निरुपमाओं या बबलियों को मार दीजिए युवाओं में परिवर्तन की इस आंधी को नहीं रोका जा सकता है। वक्त बदल रहा है। सभी को वक्त के साथ बदलना ही पड़ेगा। वरना फिर मान लीजिए कि अफगानिस्तान में तालिबान और भारत में खाप पंचायतें जो कुछ भी कर रही हैं, ठीक कर रही हैं। दरअसल, भारत का समाज संकीर्णता और आधुनिकता के बीच झूल रहा है। वह यह ही तय नहीं कर पा रहा है कि उसे किधर जाना है।