ऐसे सभी शिक्षकों को सलाम!
उम्र 24 से 70 तक
हमने कार्यशाला का फार्मेट कुछ ऐसा बनाने की कोशिश थी कि भाग ले रहे सभी शिक्षक लीक छोड़ कर सोचने के लिए मजबूर हों। मैंने नोटिस किया कि सब शिक्षक पूरे मनोयोग से अपने काम में लगे थे। इसके बावजूद कि कमरे के बाहर तापमान 44 डिग्री था। बिजली की अनियमितता के कारण रात को नींद पूरी नहीं होती थी। लेकिन किसी ने भी यह शिकायत नहीं की। हर सुबह समय पर कार्यशाला शुरू हो रही थी। कार्यशाला में कुल 22 शिक्षक थे। जिनमें सबसे युवा शिक्षक 24 बरस के थे और सबसे बुजुर्ग 70 साल के।
पांचवे दिन जब कार्यशाला समाप्त हो रही थी तो सब फीडबैक में अपनी बात रख रहे थे। इस सत्र में दो शिक्षिकाओं ने मुझे सुखद आश्चर्य में डाल दिया। उत्तरांचल के सुदूर उत्तरकाशी से दो सौ किलोमीटर से ज्यादा का सफर करके आईं उर्मिला रौन जब फीडबैक देने खड़ी हुईं तो सब बैठे हुए थे। लेकिन जब वे बोलकर बैठीं थी, बाकी सब उनके सम्मान खड़े थे।
'मैं सीखना चाहती हूं...'
उन्होंने कहा, 'मैं इस कार्यशाला में आकर यह भूल गई कि मेरी उम्र क्या है। मुझे लगता है मैं छह साल की बच्ची हूं। मैं दो साल बाद रिटायर हो जाऊंगी। पर मुझे लगता है अभी भी सीखने को बहुत कुछ बाकी है। मैं सीखना चाहती हूं। मेरी सीखने की इच्छा बढ़ती जा रही है। मैं समस्याओं से जूझना चाहती हूं। इस कार्यशाला ने मुझे सिखाया कि अपने से बड़ों के साथ कैसे रहें,बराबरी वालों से कैसे निभाएं और छोटों का मन कैसे रखें। मेरी इच्छा है कि मैं रिटायर होने के बाद भी बच्चों को पढ़ाती रहूं।"
दूसरी शिक्षिका श्रीमती भागीरथी त्रिपाठी थीं। जो पांच साल बाद रिटायर हो रही हैं। उन्होंने अभी से तय किया है कि वे रिटायर होने के बाद भी स्कूल में जाकर बच्चों को पढ़ाती रहेंगी। वे उन गरीब बच्चों को जो लगातार अभाव से जूझते रहते हैं,साक्षर बनाकर इस लायक बनाना चाहती हैं कि वे इस समाज में अपनी जगह बना सकें। शोषण से लड़ सकें।
मिलिए कैलाश लोहानी से
हो सकता है आपको लगे इन शिक्षिकाओं के ये विचार एक भावुक प्रतिक्रिया भर हैं। बहुत संभव है। पर इसी कार्यशाला के एक और शिक्षक के बारे में जानने के बाद आपको ऐसा नहीं लगेगा। वे संयोग से एक दिन पहले चले गए थे। इसलिए इस सत्र में नहीं थे। वे अपने नियमित शिक्षकीय कार्य से दस साल पहले रिटायर हो चुके हैं। उनका नाम है कैलाश लोहानी। पर वे अब भी शिक्षकीय कार्य में लगे हैं।
वे शिक्षा पर आयोजित हर कार्यशाला के लिए हर वक्त उपलब्ध रहते हैं। बहुत कम बोलते हैं, लेकिन जब बोलते हैं तो सब बहुत ध्यान से सुनते हैं। महाकवि भास के सोलह नाटकों का अनुवाद संस्कृत से कुमाऊंनी में कर चुके हैं। इन दिनों महाकवि कालीदास के नाटकों का अनुवाद कर रहे हैं। लेकिन यह बात आपको तब तक पता नहीं चलती जब तक वे खुद न बताएं।
ऐसे प्रकांड विद्वान ने अनौपचारिक बातचीत में मुझ से कहा मैंने इस कार्यशाला में सीखा कि नए लोगों से हम पुराने लोगों को क्या सीखने की जरूरत है। केवल सीखना भर नहीं, वे उसे अपने काम में अपनाना भी चाहते हैं। इतनी विनम्रता के साथ नई पीढ़ी के प्रति आदर बहुत कम देखने को मिलता है।
और अंत में... सलाम!
ये तीनों उदाहरण हमारे शैक्षिक परिदृश्य का एक और पहलू सामने रखते हैं। मैंने पिछले लेख में ऐसे शिक्षकों की बानगी प्रस्तुत की थी जो शायद इस पेशे की कसौटी पर खरे नहीं उतरते। लेकिन इन तीन उदाहरणों की बात करें तो जिनमें अपने पेशे के प्रति न केवल भावनात्मक लगाव है बल्कि एक तरह से दायित्व निभाने में सर्तकर्ता भी दिखाई देती है। नई पीढ़ी का भी यह दायित्व बनता है कि वह भी उनके लिए एक स्पेस रखे। आदर के हकदार तो वे हैं ही। ऐसे सभी शिक्षकों को सलाम।
[लेखक शिक्षा के समकालीन मुद्दों से सरोकार रखते हैं। वे शिक्षा में काम कर रही संस्थाओं से जुड़े हैं।]