महिलाओं के पहनावे पर टेढ़ी निगाहें
धर्म और औरत की आजादी
धर्म के साथ जुड़ी मान्यताओं के साथ ठीक ऐसा ही है। धर्म हमें स्वतंत्रता नहीं देता। धार्मिक व्यक्ति धर्म और ईश्वर की बंद कोठरी को त्यागना नहीं चाहता। वो उस बंद कोठरी में खुद को सुखी महसूस करता है। धर्म और इससे जुड़ी स्थापनाएं महिलाओं के लिए हर कदम पर दिक्कतें पेश करती रही हैं। वो चाहते हैं कि महिलाएं उसी बने बनाएं खोल में दबी-सिमटी रहें जो और जैसा धार्मिक किताबों में दर्ज है। यह हकीकत है कि कोई भी धर्म स्त्री को स्वतंत्र रहने की इज्जत नहीं देता। धर्म का यह अड़ियल रूख धीरे-धीरे कर हमारे मस्तिष्कों में घर करता गया और हमने महिलाओं के लिए ड्रेस कोड जैसी दीवारें खड़ी कर दीं। हमें ऐसा लगता है कि स्त्री वहीं ज्यादा सुरक्षित है।
खुले
पहनावे
से
कैसा
भय?
जहां
पहनावे
की
जिद्द
या
आधुनिकता
नहीं
है।
महिलाओं
के
पहनावे
पर
हम
अक्सर
ही
उद्दंड
हो
जाया
करते
हैं।
प्रायः
हमारी
यह
उद्दंडता
इस
कदर
बढ़
जाती
है
कि
हमें
इंसानियत
को
लांघ
में
भी
कोई
शर्म
महसूस
नहीं
होती।
यहां
सवाल
उठता
है
कि
महिलाओं
के
पहनावे
को
धर्म
का
वास्ता
देकर
उन्हें
क्यों
रोका
या
प्रताड़ित
किया
जाता
है?
शायद
हम
महिलाओं
के
खुले
पहनावे
से
भय
खाते
हैं।
साथ
ही
यह
दुहाई
भी
दी
जाती
है
कि
महिलाएं
अपने
पहनावे
में
सामाजिक
शिष्ठताएं
न
भूलाएं।
क्या
हर
सामाजिक
शिष्ठता
का
ठेका
सिर्फ
महिलाओं
ने
ही
ले
रखा
है?
मैं
अभी
तक
इस
बात
को
नहीं
समझ
सका
हूं
कि
सिर्फ
महिलाओं
के
पहनावे
से
ही
क्यों
सामाजिक
शिष्ठताएं
तार-तार
होती
हैं?
क्या
सामाजिक
शिष्ठता
में
हम
पुरुषों
की
कहीं
कोई
भागीदारी
नहीं
होती?
पुरुष
का
नंगा
रहना
या
टहलना
कभी
किसी
धर्म
या
धार्मिक
किताबों
को
भद्दा
क्यों
नहीं
लगता?
सरकोजी
का
बयान
अभी
हाल
फ्रांस
के
राष्ट्रपति
निकोलस
सरकोजी
का
बयान
आया
है
कि
उनके
देश
में
बुरके
के
लिए
कहीं
कोई
जगह
नहीं
है।
उनकी
निगाह
में
बुरका
महिलाओं
की
अधीनता
का
सिंबल
है।
वे
बुरके
को
धार्मिक
नहीं
बल्कि
महिलाओं
की
इच्छा
पर
निर्भर
मानते
हैं।
सरकोजी
के
इस
स्वतंत्र
बयान
ने
उनके
पेट
में
मरोड़े
जरूर
डाल
दी
हैं
जो
महिलाओं
की
आजादी
से
ही
नहीं
उनके
अस्तित्व
से
भी
नफरत
करते
हैं।
तमाम
धार्मिक
कठ्ठमुल्ले
सरकोजी
के
बयान
से
तिलमिलाए
हुए
हैं।
एक
पुरानी
कहावत
है
कि
पहले
व्यक्ति
की
स्वतंत्रता
वहीं
समाप्त
हो
जाती
है,
जहां
से
दूसरे
व्यक्ति
की
स्वतंत्रता
शुरु
होती
है।
दरअसल,
यह
मामला
भी
पहले
और
दूसरे
व्यक्ति
की
स्वतंत्रता
से
जुड़ा
हुआ
है।
पहला
व्यक्ति
सिर्फ
अपनी
स्वतंत्रता
को
अपने
हिसाब
से
ही
जीना
चाहता
है,
लेकिन
दूसरे
पर
तमाम
तरह
के
पहरे
लगाकर
रखता
है।
सिरफिरों
का
ड्रेसकोड
ठीक
इसी
तरह
से
ड्रेस
कोड
भी
महिलाओं
की
पहनावे
की
आजादी
के
खिलाफ
जाता
है।
ड्रेस
कोड
की
अवधारणा
ही
बमानी
है।
कुछ
सिरफिरे
ड्रेस
कोड
को
लागू
कर
महिलाओं
के
पहनावे
पर
पाबंदी
इसलिए
लगाना
चाहते
हैं,
ताकि
उनके
वर्चस्व
की
हनक
कायम
रहे।
वे
डंडे
के
बल
पर
अपनी
बात
को
मनमाना
चाहते
हैं।
आखिर
यह
तय
करने
वाले
वो
कौन
होते
हैं
कि
महिलाएं
क्या
पहनें
और
क्या
नहीं
पहनें?
आखिर
उन्हें
यह
ठेका
दिया
किसने
है?
यह
महिलाओं
की
मर्जी
पर
निर्भर
करता
है
कि
वे
जींस
पहनें
याकि
सलवार
सूट
या
साड़ी।
केवल
महिलाओं
के
पहनावे
पर
ही
प्रतिबंध
क्यों?
क्या
पुरुष
ने
अपने
गिरेबान
में
कभी
झांककर
देखा
है।
पुरुषों
की
'संस्कृति'
कितने
ऐसे
संस्कृति-सभ्यता
पसंद
पुरुष
हैं,
जिन्होंने
सलमान,
शाहरुख
या
अक्षय
के
नग्न-नाच
पर
अपना
ऐतराज
जताया
है?
मतलब
नंगा
होता
पुरुष
किसी
भी
संस्कृति-सभ्यता
की
गरिमा
के
विरूद्ध
नहीं
है!
अगर
ऐसा
ही
है,
तो
बुरके
या
ड्रेस
कोड
की
पाबंदियां
सिर्फ
महिलाओं
पर
ही
क्यों
थोपी
जाती
हैं?
असल
में
दिक्कत
तो
यही
है
कि
यहां
हर
पुरुष
की
आंख
कामुक
और
अश्लील
है।
उसे
हर
महिला
और
उसके
पहनावे
में
सिर्फ
गर्म
शरीर
ही
दिखाई
देता
है।
बुरके
में
लिपटी
या
साड़ी
में
बंधी
प्रत्येक
महिला
उसके
लिए
भोग
का
सामान
है।
हां,
जिनके
मन
में
तमाम
तरह
की
कुंठाएं
हैं,
वे
ही
बुरके
और
ड्रेस
कोड
के
सबसे
ज्यादा
हिमायती
पाए
जाते
हैं।
यह
कितना
हास्यास्पद
है
कि
वे
अपनी
सेक्स
कुंठाओं
को
दबाने
के
लिए
महिलाओं
के
पहनावे
को
ही
बलि
का
बकरा
बना
डाल
रहे
हैं।
यह 21वीं सदी है। यहां हर किसी को अपने हिसाब से जीने रहने और पहनने का हक है। बावजूद इस सच के अगर कोई बुरके या ड्रेस कोड को महिलाओं के पक्ष में नैतिक करार देता है, तो वो सबसे बड़ा बेवकूफ और तंग-ख्याल इंसान है।
[अंशुमाली रस्तोगी एक चर्चित कॉलमिस्ट और ब्लागर हैं, वे हिन्दी के कई समाचार पत्रों तथा साहित्यिक पत्रिकाओं में नियमित लिखते हैं।]