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आखिर जूते ने दिखा दी ताकत

By अंशुमाली रस्तोगी
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इधर जूतों ने कहर ढाहाया हुआ है। जूता 'असहमति के विरोध' का हथियार बनता जा रहा है। जिसे कुछ नहीं सूझ रहा, वो जूते की चोट पर दूसरे को समझाना चाह रहा है।कल तक आतंकवाद की मार से घबराए हुए हमारे नेता, अब जूते के प्रतिबिंब से भी खौफ खाने लगे हैं। पत्रकार और जूते का ऐसा संयोग बन गया है कि हर नेता और मंत्री उनकी कलम से कहीं ज्यादा, उनके जूते से घबराने लगा है। दरअसल, यह जूते की ताकत का असर है।

अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जार्ज बुश के करीब से जब जूता सांय करते हुए जब निकला था, पूरे देश में वैचारिक बहस-सी छिड़ गई थी। लोग कहने लगे थे जार्ज बुश के लिए ओसामा बिन लादेन से कहीं ज्यादा बड़ी चिंता का विषय तो जैदी का जूता बन गया है। कई दिनों तक बुश साहब को जूते और जैदी के एहसास ने परेशान किए रखा था। पूरी दुनिया जैदी के जूते को बुश से कहीं ज्यादा ताकतवर कहने-बताने लगी थी। लेकिन चिदंबरम साहब की तरफ एक पत्रकार द्वारा उछाला गया जूता जैदी के जूते से जरा भिन्न था। इस जूते की तासीर भी कुछ अलग-सी थी। असल में यह 'भावनात्मकता की रौ में बहक जाने' का जूता-आक्रोश था। वो तो गनीमत रही कि चिदंबरम साहब जूते की वेदना पर खामोश रहे, नहीं तो देश को सुरक्षा के साथ-साथ अतिरिक्त आर्थिक हानि भी हमें उठानी पड़ती। आपको मालूम होना चाहिए कि चिदंबरम साहब सुरक्षा और आर्थिक दृष्टिकोण के लिहाज से बेहद ताकतवर मंत्री हैं।

वैसे मानना पड़ेगा कि जूतों ने क्या गजब की किस्मत पाई है। हर कोई हर कहीं जूते की महत्ता पर गर्व करने लगा है। साधारण-सी चप्पल पहनने वालों ने भी अब जूतों की तरफ रूख किया है। गरीब को रोटी से कहीं अधिक फिक्र अब अपने जूतों की होनी लगी है। जूते की बढ़ती प्रसिद्धि से हमारे नेता लोग हैरान-परेशान हैं। चुनाव का मौसम है। उन्हें प्रेस-वार्ता भी करनी है और जनता के बीच भी जाना है, लेकिन जूते का डर उन्हें खाए जा रहा है। वे पसोपेश में हैं कि कल तक उनके लुभावने वायदों पर जीने-मरने वाली जनता को आचानक क्या हुआ कि अपना विरोध अब वो जूते की शक्ल में उन्हें दिखाने-समझाने लगी। कल तक निहत्थी रहने वाली जनता के हाथों में जूता देख नेता गहरे आत्म-चिंतन में डूब-से गए हैं। समझ नहीं आ रहा कि क्या करें और क्या नहीं?

साधारण-सा दिखने-रहने वाला जूता नेताओं को बेहद कष्ट दे रहा है। देश और जनता पर पांच साल तक राज करने की सजा उन्हें जूते के रूप में मिल रही है, यह काफी दुखद है। मेरे ख्याल से जनता को थोड़ा संयम से काम लेना चाहिए। हमारे नेता अच्छे हैं। मन के सच्चे हैं। यूं जूतों से उन्हें तोलना उचित नहीं।

दरअसल, जनता के भीतर आई यह 'नई जूता-क्रांति' हमारे नेताओं का कहीं कोई बड़ा नुकसान न कर दे! मेरा मन तो यही सोच-सोचकर बैठा जा रहा है।

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