वामदल हार चुके हैं!
ले-डूबा अतिआत्मविश्वास
कभी-कभी अति-आत्मविश्वास भी व्यक्ति को ले डूबता है। दरअसल, वामदलों के साथ यही हुआ। वे पूरी तरह आश्वस्त थे कि जनता उनके साथ है। जनता उन्हें पसंद करती है। जनता उनके 'परमाणु करार' से विमुख हो जाने के फैसले पर प्रसन्न है। पर, वामपंथी शायद यह नहीं जानते कि जनता अपने मन को कब और कहां बदल ले कुछ नहीं मालूम। जनता देखती सबको है, मगर करती अपने मन की है। जनता ने जैसा और जिसके बारे में जो सोचा था, उसे अपने फैसले में, नेताओं को बता दिया।
सिंगूर और नंदीग्राम
बेशक वामपंथियों ने परमाणु करार जैसे मुद्दे पर अपनी पीठ थपथपाई हो, लेकिन उन्होंने समाज और राजनीति के बीच लंबे समय तक जो अस्थिरता का महौल बनाए रखा, उसे जनता भला कैसे भूला सकती है। परमाणु करार के एवज में उसने तमाम उन जरूरी मुद्दों से खुद को अलग कर लिया जो आम आदमी से सीधा जुड़ते हैं। फिर सिंगूर और नंदीग्राम में हुए वाम-अत्याचार को जनता भला कैसे विस्मृत कर सकती है। जनता इतनी भोली नहीं है जितना कि वामदलों ने उसे समझा था। हश्र उनके सामने है। पश्चिम बंगाल में ममता बेनर्जी की जबरदस्त जीत और वामदलों की जबरदस्त हार ने हवा का रूख ही पलटकर रख दिया। आज पश्चिम बंगाल में वामदल और वामपंथ कहीं नहीं है। वामपंथियों के लाल दुर्ग में ममता बेनर्जी ने ऐसी सेंधमारी की कि वे चारों खाने चित्त पड़े हैं।
बेढ़ंगी
आर्थिक
नीतियां
दरअसल,
चुनावों
में
वामपंथियों
की
हार
का
मुख्य
कारण
उनकी
गलत
और
बेढंग
आर्थिक
नीतियां
भी
रही
हैं।
आर्थिक
धरातल
पर
वामपंथियों
और
मार्क्स
की
सोच
में
फर्क
यही
है
कि
वामपंथी
पूंजीवाद
की
आड़
में
अपने
आर्थिक
व
राजनैतिक
हित
साधने
का
प्रयास
कर
रहे
थे,
जबकि
मार्क्स
का
पूरा
दर्शन
ही
पूंजीवाद
के
विरोध
में
था।
मार्क्स
ने
पूंजीवाद
को
जिस
छड़ी
से
हांका,
वामपंथियों
ने
उस
छड़ी
को
ही
तोड़
दिया।
पश्चिम
बंगाल
में
उन्होंने
टाटा
से
दोस्ती
गांठकर
सिर्फ
अपना
उल्लू
सीधा
करने
का
मन
तो
बनाया,
पर
वहां
की
गरीब
जनता
और
उसकी
पीड़ा
को
वे
भूल
गए।
जब
सिंगूर
और
नंदीग्राम
की
जनता
ने
उनकी
'लाल
तानाशाही'
का
विरोध
किया,
तो
वामपंथियों
ने
उन्हें
अपनी
ताकत
दिखाई।
वहां
जनता
मारी
भी
गई
और
शोषित
भी
हुई।
मजा
देखिए,
लाल
तानाशाही
का
सीधा
फायदा
उठाया
ममता
बेनर्जी
ने।
ममता
बेनर्जी
ने
सीना
तानकर
वामपंथियों
को
उनके
ही
किले
में
चुनौती
दे
डाली
और
अंततः
जीतकर
ही
बाहर
निकलीं।
पश्चिम
बंगाल
में
वामदल
ठगे-से
रह
गए।
तीन
दशक
से
भी
लंबी
हिटलरशाही
अंततः
16
मई
को
ढह
ही
गई।
परिवर्तन
से
परहेज
यह
लिखने
में
जरा-भी
गुरेज
नहीं
कि
वामपंथी
हमेशा
परिवर्तन
से
पीछे
भागते
हैं।
उन्हें
न
आर्थिक
सुधार
पसंद
हैं।
न
सामाजिक
बदलाव।
वे
देश
और
जनता
को
वही
घोड़ा-गाड़ी
वाले
युग
में
रखना
पसंद
करते
हैं।
उन्हें
शेयर
बाजार
से
नफरत
है।
मॉल-कल्चर
से
परहेज
है।
उदारीकरण
को
भी
वे
शक
की
निगाह
से
ही
देखते
हैं।
मगर
दम
हर
वक्त
'प्रगतिशील
दृष्टिकोण'
का
भरते
हैं।
मजा
देखिए,
वे
जाति-व्यवस्था
पर
कभी
कुछ
नहीं
कहते-बोलते।
जिस
सामंतवाद
को
वे
रह-रहकर
गरियाते
हैं,
असल
में,
सबसे
बड़े
सामंतवादी
तो
वे
खुद
हैं।
भला
बिना
आर्थिक
और
सामाजिक
परिवर्तन
के
कोई
देश
कभी
तरक्की
कर
सकता
हैं?
शायद
कभी
नहीं।
आज
परिवर्तन
हर
देश
और
जनता
की
सख्त
जरूरत
है।
सिर्फ
मार्क्सवाद
के
पुराने
सिद्धांतों
से
चिपके
रहना
हर
प्रगति
में
बाधक
है।
क्योंकि
बदलते
वक्त
और
परिवेश
के
साथ
हर
विचारधारा
में
परिवर्तन
आता
है
और
उसमें
तमाम
नई-नई
चीजें
आकर
जुड़ती
हैं।
जहां
और
जिस
विचारधारा
में
नए
की
गुंजाइश
होगी
बदलाव
भी
वहीं
होगा।
वक्त
रहते
सोचना
होगा...
वामपंथियों
को
अपनी
हार
और
खिसकते
जानाधार
के
विषय
में
बहुत
गहराई
से
सोचना
होगा।
जहां
कमियां
हैं,
उन्हें
बेहिचक
दुरुस्त
भी
करना
होगा।
वामपंथियों
के
लिए
केरल
और
पश्चिम
बंगाल
की
हार
कोई
छोटी-मोटी
हार
नहीं
है।
ये
हार
जुड़ी
है
वामपंथ
की
साख
और
विचारधारा
से।
समय
रहते
वामपंथी
अगर
अपने
दुर्ग
को
संभाल
लेते
हैं,
तो
ठीक
नहीं
तो
कल
को
ऐसा
न
हो
कि
वे
भी
हमें
इतिहास
की
किताबों
में
ही
नजर
आने
लगें।
[अंशुमाली रस्तोगी युवा लेखक और कॉलमिस्ट हैं।]
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