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मानसूनः सबकी अपनी-अपनी चिंताएं

By अंशुमाली रस्तोगी
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Grasshopper
इधर मानसून के ठाठ बहुत बढ़ गए हैं। हर कोई उसके समक्ष नतमस्तक है। गुहारें लगाई जा रही हैं कि बादल गरजें-बरसें। लेकिन बादलों ने भी जैसे कसम खा रखी है। उधर सूरज देवता को पूरा मौका मिल रहा है, अपने ताप की ताकत को दिखाने का। गर्मी पसीना दे रही है और बिजली करंट।

यहां मानसून पर सबकी अपनी-अपनी चिंताएं हैं। जो बुद्धिजीवी कल तक चुनाव परिणामों, भाजपा के बिखराव और लालगढ़ की लालिमा पर अपनी कलमें तोड़ रहे थे, आज मानसून की बेरूखी से हलकान हैं। समझा रहे हैं कि मानसून न आया तो मंदी और महंगाई का ग्राफ तेजी से बढ़ेगा। पानी की किल्लत होगी। बिजली की समस्या घेरेगी। हर तरफ मुसीबतें ही मुसीबतें।

सरकार कह रही है कि मंदी और महंगाई के बाद मानसून के कहर से निपटने के लिए (सिर्फ) आम आदमी तैयार रहे। समाज या देश में किसी भी प्रकार का संकट गहराता है, तो कमर आम आदमी की ही टूटती है। वहीं आम आदमी मानसून की प्रसन्नता के लिए हवन-यज्ञ करवा रहा है। किसान बंजर खेत में बैठकर हाथ जोड़े बादलों के आगे नतमस्क हैं।

जब नाराजगी का पता न चलने पर टीवी चैनलों और अखबारों में बयान दे देते हैं कि अभी मानसून दस-पंद्रह दिन और लेट हो सकता है। कभी यहां-वहां से बादलों का दबाव नहीं बन पा रहा है। कभी आइला तो कभी ग्लोबल गर्मी का। हम उनकी बात को मान पुनः बादलों को निहारने लग जाते हैं।

वैसे मानसून जहां कहीं भी होगा मन ही मन सोच रहा होगा कि तुमने पेड़ काटे, प्रदूषण बढ़ाया, नदियों-तालाबों को सोखा तो मैंने भी अपने हिसाब से सख्ती कर दी। यानी जैसे को तैसा।

तो बंधु मानसून के लिए इतना बेकरार न हो। अब तक पृथ्वी और प्रकृति के साथ जो खिलवाड़-छेड़छाड़ करते आए हो उसे बंद करो। नहीं तो यूं ही बादलों की तरफ हर पल निहारते रहोगे और मानसून की सख्ती को झेलते रहोगे।

[अंशुमाली रस्तोगी एक चर्चित कॉलमिस्ट और ब्लागर हैं, वे हिन्दी के कई समाचार पत्रों तथा साहित्यिक पत्रिकाओं में नियमित लिखते हैं।]

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