Motivational Story: जब बुद्ध ने बदला था अंगुलीमाल का मन
नई दिल्ली। गति जीवन का सत्य है। गति है, तो जीवन है। चलते रहना जीवन की जरूरत है। जो रूक जाता है, थक जाता है, वो मिट जाता है। इस सत्य को नकारा नहीं जा सकता, किंतु यह तथ्य भी उतना ही सत्य है कि केवल चलना ही जीवन नहीं है। हर किसी को कहीं ना कहीं रूकना भी पड़ता है। अंधी दौड़ का कोई अंत नहीं, उससे थकान, अकेलेपन के सिवा कुछ मिलेगा भी नहीं।
भारतीय धर्मशास्त्रों में मनुष्य के जीवन का चौथा भाग वानप्रस्थ के लिए सुरक्षित किया गया है। इसका सीधा अर्थ यह है कि जीवन के इस पड़ाव पर थम जाइए। अब जीवन की भाग दौड़ से, जिम्मेदारियों से स्वयं को मुक्त कीजिए। अपनी युवा पीढ़ी को जिम्मेदारियां सौंपिए और स्वयं को आत्मा से, परमात्मा से, आत्मचिंतन से जोड़ लीजिए।
आज इसी संदर्भ में भगवान बुद्ध की बड़ी प्रसिद्ध कथा का रसास्वादन करते हैं-
अंगुलिमाल की प्रवृत्ति राक्षसी थी
एक बार भगवान बुद्ध अपने शिष्यों के साथ विहार पर थे। वे एक गांव से गुजर रहे थे और आगे एक जंगल पड़ने वाला था। उस गांव में ध्यान, भोजन से निवृत्त होकर जब वह आगे बढ़ने लगे, तो गांव के लोगों ने उन्हें मना किया। तथागत को ज्ञात हुआ कि उस जंगल में अंगुलिमाल नाम का एक व्यक्ति रहता है, जिसकी प्रवृत्ति राक्षसी है और वह जंगल में आने वाले व्यक्तियों की अंगुलियां काट कर उनकी माला बनाकर पहनता है। इसी कारण से उसका नाम अंगुलीमाल पड़ गया है और उसके भय से लोग दिन के समय में भी जंगल में नहीं जाते।
भगवान ने कहा- वत्स! मैं तो कब का रूक चुका हूं
तथागत तो बोधि के बाद भय, तनाव, तृष्णा आदि मानवीय विकारों से मुक्ति पहले ही पा चुके थे। उन्हें संसार में किसी से भय नहीं था। लोगों का भय दूर करने के लिए वे अकेले ही जंगल में चल पड़े। थोड़ी दूर चलने पर किसी ने कहा- ऐ! रूको! भगवान ने मुड़कर देखा, तो वही अंगुलिमाल हाथ में हंसिया लिए खड़ा था। भगवान ने कहा- वत्स! मैं तो कब का रूक चुका हूं। तुम कब रूकोगे? उनके प्रश्न से अंगुलिमाल अचकचा गया। तथागत चल पड़े, तब अंगुलिमाल ने फिर कहा, ऐ! रूको! क्या तुम्हें मुझसे डर नहीं लगता? बुद्ध ने कहा- वत्स! मैंने बताया ना, मैं तो कभी का रूक चुका हूं। तुम बताओ, तुम कब रूकोगे? कब तक रक्त बहाते रहोगे? कब तक यह अंगुलियों की माला बनाते रहोगे? इस माला को बनाकर क्या पाओगे? कभी सोचा है तुमने? अंगुलिमाल स्तब्ध खड़ा रह गया। तब बुद्ध ने कहा- वत्स! अब रूक जाओ। हर किसी को कहीं- ना- कहीं रूकना ही पड़ता है। अब तुम्हारे रूकने का समय आ गया है। छोड़ो यह घृणित कर्म। मेरे साथ चलो, धम्म के मार्ग पर चलो। उस परमपिता से नाता जोड़ो और वह पा लो, जिसके लिए भटक रहे हो, जिसके लिए तुम्हें ये जन्म मिला है। तथागत की बातों का अंगुलिमाल पर जादू जैसा असर हुआ। वह तथागत के चरणों में गिर पड़ा और उसी क्षण संघ में शामिल हो गया।
शिक्षा
यही जीवन की क्रमिक सच्चाई है, अपने अंतिम पड़ाव को पा लेना है। आखिर दौड़ा भी कब तक जा सकता है और इस अंधी दौड़ का अंत कहां है? शायद कोई नहीं जानता, इसीलिए अपनी जिम्मेदारियां पूरी करें और स्वयं ही अपने जीवन का आकलन कर थम जाएं क्योंकि कहीं- ना- कहीं रूकना तो पड़ता ही है।
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