केमुद्रम योग: जानिए किसके लिए है लकी और किसके लिए अनलकी?
किसी कुण्डली में चन्द्रमा से द्वितीय एंव द्वादश स्थान मे जब कोई ग्रह स्थित न हो तो केमुद्रम नाम का दरिद्रतादायक योग बनता है।
लखनऊ। ज्योतिष शास्त्र में हजारों योगों के बारे में हमारे ऋषियों ने चर्चा की है उनमें से कुछ योग लाभकारी है, जो सुख, समृद्धि, धनदायक है और कुछ अशुभ योग है, जो गरीबी, अविद्या, संघर्ष, आदि में जातको का जीवन उलझाये रहते है।
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ऐसा ही एक केमुद्रम योग है, जिसे कुछ झोला छाप ज्योतिषी हमेशा दुःख कारक मानकर लोगों को भ्रमित करते है कि जिसकी कुण्डली में केमुद्रम योग बनता है। वह जातक हमेशा दरिद्रता के दलदल में फॅसा रहता है किन्तु शास्त्रों में इस योग के शुभ व अशुभ दोनों फल बताये गये है।
आईये आज इसी पर चर्चा करते है कि केमुद्रम योग कैसे बनता है, कब भंग होता है और कब सुख-समृद्धि व यश दिलाता है...
कारण
चन्द्रमा जहां पर बैठा होता है, उसे चन्द्र लग्न कहते है। धन प्राप्ति में अन्य लग्नों की भॉति चन्द्र लग्न का विशेष महत्व है। चन्द्र के विषय में यह सिद्धान्त मौलिक रूप से समझ लेना चाहिए कि यदि चन्द्र किसी भी ग्रह के प्रभाव में न हो तो वह निर्बल समझा जाना चाहिए और निर्बल चन्द्र का अर्थ है लग्न का निर्बल होना अर्थात मनुष्य का धन, स्वास्थ्य, यश, बल आदि से वर्जित होना।
सरावली ग्रन्थ में कहा गया है
कान्तान्नपानगुहवस्त्रसुह्रद्विहीनो,
दारिद्रयदुः
खगददैन्यमलैरूपेतः।
प्रेष्यः
खलः
सकललोकविरूद्धवृतिः,
केमुद्रमे
भवति
पार्थिववंशजोपि।।
अर्थात
यदि
कुण्डली
में
केमुद्रम
योग
हो
तो
स्त्री-पुरूष
अन्न,
पान,
गृह,
वस्त्र
व
बन्धुजनों
से
विहीन
होकर
दरिद्रता,
दुःख,
रोग,
परतन्त्रता
से
युक्त,
दूसरों
से
द्वेष
करने
वाला,
दुष्ट
एंव
दूसरें
लोगों
का
अनिष्ट
करने
वाला
होता
है।
एक अन्य प्रकार का केमुद्रम योग स्वार्थ चिन्तामणि ग्रन्थ में उल्लेखित है
भाग्येश्वरे
रिःफगते
तदीशे
वित्तस्थिते,
भ्रातगतैश्च
पापैः
केमुद्रमस्मिन्
भवेत।
कुभोगी
दुष्कर्मयुक्तोन्यकलत्रगामी।।
अर्थात
जब
नवम
भाव
का
स्वामी
द्वादश
भाव
में
बैठा
हो
और
द्वादश
भाव
का
स्वामी
द्वितीय
भाव
में
स्थित
हो
और
तृतीय
भाव
में
पापग्रह
स्थित
हो
तो
केमुद्रम
नाम
का
दरिद्रतादायक
योग
बनता
है।
इस
योग
में
उत्पन्न
मनुष्य
अभक्ष्य-भक्षी,
दुष्ट
कमों
में
लगा
हुआ
परदारगामी
होता
है।
चन्द्र से द्वादश में रवि छोड़कर
रविवर्ज
द्वादशगैरनफा
चन्द्राद्वितीयगैः
सुनफा।
उभयस्थितैः
दुरूधरा
केमुद्रमसंज्ञकोतोन्यः।।
अर्थात यदि चन्द्र से द्वादश में रवि छोड़कर {क्योंकि सूर्य के चन्द्र से द्वादश होने से चन्द्र, सूर्य के सानिध्य में पक्ष बल में अति निर्बल हो जायेगा जिस कारण फल देने में असमर्थ हो जायेगा } कोई भी ग्रह स्थित हो तो अनफा नामक योग बनता है और यदि इसी प्रकार सूर्य को छोड़कर अन्य ग्रह द्वितीय भाव में बैठा हो तो सुनफा नामक योग का निर्माण होता है। इसी प्रकार यदि द्वितीय व द्वादश दोनों स्थानों में सूर्य को छोड़कर कोई ग्रह स्थित हो तो दुरूधरा नामक योग बनता है। किन्तु उक्त स्थानों में अर्थात चन्द्र द्वितीय व द्वादश भाव में कोई ग्रह न हो तो केमुद्रम योग बन जाता है।
कैसे भंग होता है केमुद्रम योग
ऐसी कौन-कौन सी स्थितियॉ जिनमें यह समझा जाये कि चन्द्र पर कोई प्रभाव नहीं है। पहली स्थिति चन्द्र से द्वितीय व द्वादश भाव में कोई ग्रह न हो दूसरी स्थिति चन्द्र न तो किसी ग्रह से युत हो और न दृष्ट और न ही इसके केन्द्र में कोई ग्रह हो। केमुद्रम योग का आशय यह है कि चन्द्र निर्बल एंव प्रभावहीन हो। यदि चन्द्र से छठें अथवा आठवें स्थान में ग्रह हो तो भी चन्द्र पर ग्रहों का प्रभाव समझना चाहिए। इसी प्रकार यदि चन्द्र स्वयं केन्द्र में हो तो वह बली हो जाता है जिस कारण केमुद्रम योग भंग हो जाता है।
मानसागरी में कहा गया है
केन्द्रेशीतकरेथवा
ग्रहयुते
केमद्रुमो
नेप्यते।
केचित्केन्द्रनवांशकेषु
इति
वदन्ति
उक्ति
प्रसिद्धा
न
ते।।
अर्थात
यदि
चन्द्र
से
केन्द्र
स्थान
में
कोई
ग्रह
बैठा
हो
तो
केमुद्रम
योग
नहीं
बनता
है।
इसी
प्रकार
यदि
चन्द्र
के
साथ
किसी
भी
ग्रह
की
युति
हो
तो
केमुद्रम
योग
नहीं
होता
है।
चन्द्र
से
केन्द्रों
में
ग्रहों
की
स्थिति
से
केमुद्रम
योग
भंग
हो
जाता
है।
क्योंकि
केन्द्र
में
ग्रहों
की
स्थिति
से
उन
ग्रहों
का
चन्द्र
पर
प्रभाव
पड़ता
है,
जिससे
चन्द्रमा
बली
हो
जाता
है
और
केमुद्रम
योग
भंग
हो
जाता
है।
केमुद्रम योग भी देता है यश कीर्ति में वृद्धि
पूर्णः
शशी
यदि
भवेत्छुभसंस्थितो
वा,
सौम्यामरेज्यभृगुनन्दनसंयुतश्च।
पुत्रार्थसौख्यजनकः
कथितो
मुनीद्रैः,
केमुद्रम
भवति
मंगलसुप्रसिद्धिः।।
अर्थात
यदि
चन्द्र
पूर्ण
हो
अथवा
शुभ
स्थिति
में
हो
अर्थात
बुध,
गुरू,
या
शुक्र
से
संयुक्त
हो
तो
पुत्र,
धन
तथा
सुख
को
उत्पन्न
करने
वाला
कहा
गया
है
और
केमुद्रम
योग
होने
पर
भी
अर्थात
चन्द्र
से
द्वितीय
व
द्वादश
ग्रहों
के
अभाव
में
भी
मनुष्य
मंगल
तथा
यश
की
प्राप्ति
करता
है।
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केमुद्रम
योग:
किसी
कुण्डली
में
चन्द्रमा
से
द्वितीय
एंव
द्वादश
स्थान
मे
जब
कोई
ग्रह
स्थित
न
हो
तो
केमुद्रम
नाम
का
दरिद्रतादायक
योग
बनता
है।
जब
चन्द्रमा
किसी
ग्रह
से
युत
व
दृष्ट
न
हो
और
अगले
एंव
पिछले
केन्द्रों
में
कोई
ग्रह
स्थित
न
हो
तो
भी
केमुद्रम
नाम
के
योग
का
निर्माण
होता
है।