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Gaur jayanti special: समाज से बहिष्कृत और जाति से परे डा.गौर

By डा. रजनीश जैन
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सागर। यह तीसरी कड़ी हरिसिंह गौर के जीवन में प्रभाव छोड़ने वाली महिलाओं पर है और उनमें पहला स्थान माँ भूरीबाई का ही है। पिता तखतसिंह को पत्नी भूरीबाई से निठल्ले बैठने के ताने मिलते रहते थे लेकिन वे बेअसर ही रहे। बेटे की नौकरी से निश्चिंत तखतसिंह गांजा पीने और चौसर खेलने में भी समय लगाते थे। शनीचरी के बुजुर्गों में चौसर की परंपरा अभी तीस साल पहले ही छूटी है। बीच में चीलपहाड़ी की ऊसर जमीन बेचकर देवलचौरी गांव में 35 एकड़ उपजाऊ खेती ली। तखतसिंह उत्साह से कुछ दिन तक खेत गये भी फिर अपने ही एक जातभाई को खेती देकर गांव जाना बंद कर दिया। साल में एक बार फसल की थोड़ी सी लांक बैलगाड़ी में वह घर पर दे जाता जिसकी दांय करके शनीचरी के घर में ही अनाज निकाला जाता था। ऊपर के खर्च पूरे करने के लिए भूरीबाई को तकली पर सूत कातना पड़ता था। दोपहर दो तीन बजे से दिन डूबने तक वे पोनियां बनाती थी। इससे कुछ आने मिल जाते थे।

article on gaur jayanti special part three

गवर्मेंट स्कूल में मिली मिशेल स्कालर शिप के दो रूपये देकर हरिसिंह अपनी माँ से यह कहते हैं कि आप अब सूत कातना बंद कर सकती हैं तो माँ कहती हैं कि तुम्हें बुरा लगता है तो यह बंद करके पड़ोसियों का आटा पीसूंगी जो और भी मेहनत का काम है।...यानि घर की जरूरतें बड़ी थीं। बाद में हम पाते हैं कि ज्यों ज्यों तखतसिंह वृदध हुए उनके लिए आधारसिंह ने खर्च में कटौती कर दी। मरने से कुछ समय पहले तखतसिंह अपने मझले बेटे गनपतसिंह के बच्चों को पढ़ाने के लिए जबलपुर के गढ़ा फाटक पर रह रहे थे और तब उन्हें आधारसिंह सिर्फ दस रूपया महीना भेज रहे थे।
हरिसिंह को बचपन में अपनी मौसी की सुंदर सी लड़की के साथ खेलना याद था क्योंकि उस लड़की के कारण उनकी भौंह पर पत्थर की एक चोट लगी जो उनके शरीर का स्थायी पहचान चिंह बन गयी।

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जबलपुर के राबर्टसन कालेज में पढ़ने के दौरान गढ़ाफाटक पर बड़े भाई के मित्र विष्णुदत्त पंडित के दिलाए किराए के घर में रह रहे थे। नजदीक रहने वाले सागर के ही एक काछी परिवार के मां बेटे के यहां गौर खाना खाने लगे थे। एक रोज इसी घर में उनकी सोने की अंगूठी चोरी चली गयी। पुलिस को शिकायत हुई और उस खाना खिलाने वाली महिला के पास से अंगूठी बरामद हुई। महिला की गिरफ्तारी और अदालत में उसके खिलाफ गवाही देने को हरिसिंह ने इस संवेदनशीलता से चित्त पर लिया कि ठीक से परीक्षा भी न दे सके और जिंदगी में पहली और आखिरी बार फेल हो गये। इसके नतीजे में स्कालरशिप बंद हो गयी थी। लेकिन इस झटके से और ज्यादा संकल्पित होकर वे बाहर निकले।

डा.गौर की मंझली भाभी यानि श्रीमती गनपत सिंह गौर ने उनकी विदेश में रहते हुए जबलपुर से ऐसे समय मदद भेजी थी जब आधार सिंह ने पैसा भेजने से मना कर दिया था। हुआ यह कि 1905 में लंदन यूनिवर्सिटी और ट्रिनिटी कालेज डबलिन से डी. लिट उपाधि लेकर भारत लौटना चाहते थे। उनसे भी पहले लंदन पहुंचे भतीजे मुरली मनोहर सिंह से भी पहले अपनी पढ़ाई और बार का टर्म हरिसिंह पूरा कर चुके थे। यह उनकी प्रतिभा की मिसाल थी और अब वे भारत लौटकर अपना काम शुरू करना चाहते थे। उन्होंने आधारसिंह को यह बता कर लौटने के लिए रूपये भेजने को कहा। लेकिन आधार सिंह ने लौटने के प्लान को खारिज करके रूपये भेजने से मना कर दिया। मझले भाई गनपत की मृत्यु हो चुकी थी और विधवा भाभी जबलपुर में रह कर बच्चे पढ़ा रही थीं। ऐसे में हरिसिंह गौर ने भाभी को यह वाकया लिखा और मदद मांगी। भाभी की आर्थिक हालत ठीक नहीं थी लेकिन वे अपने जेवर लेकर राजा गोकुलदास की फर्म के निजी बैंक गयीं ,गिरवी रख कर 700 रू उठाये और हरिसिंह गौर को भेज दिए। इस मदद से डा. गौर ने अपनी डिग्री और भारत आने की औपचारिकताऐं पूरी कीं।

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भारत आकर डा. गौर ने की नियुक्ति प्रावेंशियल सिविल सर्विसेज के तहत एक्स्ट्रा असिस्टेंट कमिश्नर (डिप्टी कलेक्टर रैंक) के पद पर हो गई। उनकी पोस्टिंग भंडारा हुई।यहां आते ही मदद करने वाली भाभी ने हरिसिंह को शादी के लिए लड़की ढूंढ़ने की सहमति मांगी। यह तब एक कठिन काम था क्योंकि यहां के राजपूतों में विदेश जाने वालों को सवमेव जाति से बाहर समझा जाता था। लेकिन हरिसिंह के परिवार ने यह जोखिम उठाया था और अब वे इसकी सामाजिक कीमत वे चुका रहे थे। डा. गौर भंडारा में जब भी बीमार पड़ते तो उनके इलाज के लिए एक डाक्टर आते थे। डा. गौर ने उनका परिचय पूछा तो पता लगा कि वह ऐसे चौहान राजपूत हैं जिसने अकाल के दौरान अपना धरम बदल कर क्रिश्चियनिटी स्वीकार की है। डाक्टर की बेटी भी देश की शुरुआती एमबीबीएस डाक्टर थीं उनका नाम डा.ग्रेस कमलिनी था। डा.गौर को अपना समाधान और भविष्य डा.ग्रेस में दीख गया। डा.ग्रेस जल्द ही कोर्ट मैरिज करके डा.ग्रेस कमलिनी गौर हो गयीं। उन्हें बाद में लेडी गौर कहा जाने लगा।

लेडी गौर के जीवन में आते ही घर का वातावरण पूरी तरह पाश्चात्य सभ्यता में ढल गया। घर में दीवाली के साथ ही क्रिसमस भी धूम से मनाई जाती थी। राजपूतों की मध्यकालीन रवायतों को डा. गौर ने आऊट आफ डेटेड करार दिया, ...अपने चिंतन और व्यवहार दोनों से। यह कदम उठा लेने के बाद डा. गौर का परिवार राजपूत बिरादरी में पूरी तरह बहिष्कृत हो गया। उनको रिश्तेदारों और समाज ने कार्यक्रमों के न्यौते देना पूरी तरह बंद कर दिया। उनके परिवार का छुआ खाना रिश्तेदारों में भी कोई नहीं खाता था। सबसे बुरा तो यह था कि वे अपनी इकलौती बहिन लीलावती के घर भी नहीं जा सकते थे जिसके परिवार की सबसे ज्यादा चिंता वे करते थे। लीलावती तिल्ली की बीमारी का शिकार हो गयीं और एक धीमी मौत मरीं लेकिन अपने भाई की आर्थिक मदद उन्हें मिल सकी, प्यार और स्नेह से वंचित रहीं क्योंकि आना जाना सहज नहीं था।...जैसी कि इंसानी फितरत होती है सक्षम और समर्थ रिश्तेदारों के यहाँ सांस्कृतिक और सैद्धांतिक मतभेदों के बाद भी लोग अधिकार पूर्वक मदद लेने जाते हैं लेकिन अपनी दकियानूसी सोच पर खोखले अभिमान के भ्रम में जीते रहते हैं, इसी प्रकार डा. गौर के परिवार के साथ होता था। उन्होंने मृत्युपर्यन्त, यहां तक की वसीयत में भी अपने दरवाजे रिश्तेदारों के लिए बंद नहीं किए थे।...सो उनके नागपुर वाले विशाल बंगले में रिश्तेदार पड़े रहते थे लेकिन उसी घर में रहते हुए उनका खाना स्वीकार नहीं करते थे। अपना ले जाकर उनके बंगले के ही एक हिस्से में बना कर खाते थे।...और गौरसाहब इस पूरे अछूत व्यवहार को बड़े ही खुले हृदय से स्वीकार करते थे।

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लेकिन उनमें से कुछ रिश्तेदार ऐसे नहीं थे। सागर की एक रिश्तेदार महिला शोभा नागपुर में उनके घर बार बार बुलाई जाती थीं सिर्फ इसलिए कि उनके हाथ से वैसा देशी खाना बनवा कर खा सकें जैसा कि हरिसिंह को उनकी माँ खिलाती थीं। वह शुद्ध देहाती खाने को मरते दम तक नहीं भूले। जीवन के आखिरी दौर में सागर के माडलहाऊस यानि गौरभवन में उनके कई रिश्तेदारों ने आना जाना शुरू किया और गौर साहब की पसंद के देशी व्यंजन बना कर भेजना शुरू किए। लेकिन जब बेटियां बड़ी हो रही थीं तब समाज और रिश्तेदारों ने दूरी बनाई हुई थी। डा. गौर के एक रिश्तेदार बीएस चौहान ने लिखा है कि गौर साहब चाहते थे कि उनकी बेटियां ऐसे राजपूतों में भी ब्याही जाऐं जो पढ़ लिख कर अच्छे ओहदों पर आ गये थे। अपने ही एक दूर के रिश्तेदार जे एस चौहान जो कि सिवनी से डिप्टी कलेक्टर होकर रिटायर हुए, के लिए डा. गौर ने अपनी बेटी का रिश्ता बीस हजार रूपये नगद दहेज के आफर के साथ भेजा लेकिन यह प्रस्ताव जातिगत प्रतिबद्धता के कारण ठुकरा दिया गया। इन सब घटनाओं ने डा. गौर के मन में जातिवाद के खिलाफ लड़ने का भाव और तेज हुआ। उन्होंने बाद में हैदराबाद की एक प्रगतिशील संस्था "जातपात तोड़क मंडल" की अध्यक्षता स्वीकार की और इस दिशा में अभियान भी चलाऐ।

लेडी गौर ने छह खूबसूरत और प्रतिभाशाली पुत्रियों और एक पुत्र को जन्म दिया। वायोलेट, डोरोथी, कान्सटेंस,एग्नेस,गेर्टरूड और रूबी इनकी बेटियों के आरंभिक नाम थे। देश विदेश के नामी घरानों में इनकी शादियां हुईं और नाम बदल गये। वायोलेट श्रीमती प्रेम सिंह बरार बन गई, डोरोथी श्रीमती गनपथी हुई, कान्सटेंस बैतूल के डिप्टी कलेक्टर से शादी करके श्रीमती व्यौहार होकर 1933 में दिवंगत हुईं, एग्नेस की शादी इलाहाबाद हाईकोर्ट के अंग्रेज जज जस्टिस डब्ल्यू.ब्रूम से होकर मिसेज स्वरूप कुमारी ब्रूम बनी और 1970 में पति के रिटायरमेंट के बाद उनके साथ इंग्लैंड चली गयीं। उनका बंगला इलाहाबाद हेड पोस्ट आफिस के पास था जो एडव्होकेट जनरल राजाराम अग्रवाल ने खरीदा था जिनके बेटे आर एन अग्रवाल अब सुप्रीम कोर्ट के जज हैं।पाचवीं बेटी ग्रेटरूड संभवतः अविवाहित ही चल बसी थीं, रूबी शादी के बाद श्रीमती सुलोचना रूबी नंदा हो गई थीं जिन्होंने लंदन के साऊथ चेल्सिया में एक एस्टेट खरीदा था जहाँ कुछ समय डा. गौर भी जाकर रहे। इकलौते बेटे का नाम अर्नेस्ट उर्फ मोहन गौर था जिसकी मृत्यु उनके सामने ही 1944 में हो गयी थी।
1941 में जब लेडी गौर का निधन हुआ तभी डा. हरिसिंह गौर के मन में अपने व्यावसायिक जीवन की इति करके अपनी मातृभूमि सागर लौट चलने का ख्याल आया। ...हर काम को दिल की तहों से, परफेक्शन और योजना से करने के आदी डा. हरिसिंह गौर ने अपने जीवन का समापन सत्र भी बेहद आकर्षक बना रखा था।

पहला भाग- गौर जयंती विशेष: हरिसिंह होने के मायनेपहला भाग- गौर जयंती विशेष: हरिसिंह होने के मायने

दूसरा भाग- Gaur Jayanti Special: पिता का फैसला और भाई का आधारदूसरा भाग- Gaur Jayanti Special: पिता का फैसला और भाई का आधार

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English summary
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