यूपी चुनाव से ही बनने लगी है 2019 के चुनाव की रणनीति
यूपी चुनाव इस बार 2019 के लोकसाभ चुनाव की भी तस्वीर को साफ कर रहा है, सपा-कांग्रेस का गठबंधन 2019 के चुनाव की दशा और दिशा तय कर सकता है।
लखनऊ। यूपी विधानसभा का इस बार का चुनाव ना सिर्फ प्रदेश की सियासत तक सिमटा है बल्कि आगामी लोकसभा चुनाव की तस्वीर भी साफ करेगा। जिस तरह से अखिलेश यादव और राहुल गांधी ने प्रदेश के चुनाव से पहले साथ आने का ऐलान किया है वह इस ओर साफ इशारा कर रही है कि दोनों दल इस चुनाव से इतर 2019 के लोकसभा चुनाव को भी अपने एजेंडे में सबसे उपर रखना चाहते हैं। दोनों ही दलों ने प्रदेश में एक साथ आकर केंद्र की राजनीति को साधने की कोशिश शुरु कर दी है।
कांग्रेस के सामने मुश्किल सवाल
दोनो ही दल खुद को प्रदेश के सबसे बड़े सेक्युलर दल के रूप में लोगों के सामने रख रहे हैं, ऐसे में प्रदेश में एक तरफ जहां भाजपा और बसपा के लिए मुश्किलें बड़ी हो सकती हैं तो दूसरी तरफ कांग्रेस का उत्तर प्रदेश में लंबे समय से चल रहा वनवास खत्म हो सकता है। इस गठबंधन के बाद कई ऐसे सवाल भी हैं जो ना सिर्फ राजनीतिक दल बल्कि प्रदेश की जनता भी पूछेगी। इसमें सबसे बड़ा सवाल यह होगा कि कांग्रेस के उस नारे का क्या हुआ जो उसने इस चुनाव से पहले बुलंद किया था, 27 साल यूपी बेहाल।
क्या
चलेगा
प्रियंका-डिंपल
फार्मूला
?
कांग्रेस
से
लोगों
के
जो
सवाल
हैं
वह
27
साल
यूपी
बेहाल
के
नारे
के
अलावा,
शीला
दीक्षित
की
सीएम
उम्मीदवारी।
इन
सवालों
का
जवाब
भले
ही
कांग्रेस
के
पास
नहीं
हो
लेकिन
लोग
इस
बात
को
बखूबी
समझ
रहे
हैं
कि
कांग्रेस
ने
जंग
से
पहले
ही
हथियार
डाल
दिए
हैं।
लेकिन
कांग्रेस
के
इस
रूख
को
समझने
की
जरूरत
है।
कांग्रेस
इस
बात
से
वाकिफ
है
कि
वह
प्रदेश
में
किसी
भी
सूरत
में
सरकार
बनाने
में
सफल
नहीं
हो
सकती
है,
लिहाजा
वह
अखिलेश
नाम
के
लोकप्रिय
चेहरे
के
साथ
खुद
को
प्रदेश
में
मजबूत
करना
चाहती
है।
वर्ष
2004
में
भी
कांग्रेस
ने
तमाम
छोटे
दलों
के
साथ
गठबंधन
करके
एनडीए
को
हराने
का
आह्वाहन
किया
था
और
पार्टी
को
जीत
हासिल
हुई
थी,
ठीक
उसी
तर्ज
पर
एक
बार
फिर
से
कांग्रेस
यूपी
से
इस
रणनीति
का
आगे
बढ़ाने
की
कोशिश
कर
रही
है।
इस
काम
को
आगे
बढ़ाने
के
पीछे
प्रियंका
गांधी
और
डिंपल
यादव
ने
अहम
भूमिका
निभाई
थी।
अखिलेश
से
पार
पाना
कांग्रेस
के
लिए
चुनौती
प्रदेश
में
सपा-कांग्रेस
के
गठबंधन
के
बाद
दोनों
ही
दल
यह
संदेश
देने
की
कोशिश
कर
रहे
हैं
कि
यह
गठबंधन
अजेय
है
और
यह
गठबंधन
आगामी
लोकसभा
चुनाव
में
जीत
का
फार्मूला
साबित
हो
सकता
है।
एक
तरफ
जहां
सपा
इस
बात
को
आगे
बढ़ा
रही
है
कि
आप
हमें
सीएम
की
कुर्सी
तक
पहुंचाने
में
मदद
कीजिए
तो
हम
आपको
पीएम
की
कुर्सी
तक
पहुंचाने
में
मदद
करेंगे।
लेकिन
जिस
तरह
से
आज
नरेश
अग्रवाल
ने
आज
साफ
कहा
है
कि
वह
अखिलेश
यादव
को
भविष्य
में
पीएम
पद
का
दावेदार
मानते
है,
यही
नहीं
खुद
अखिलेश
यादव
अपने
पिता
को
पीएम
पद
तक
पहुंचते
देखना
चाहते
हैं।
लेकिन
हाल
फिलहाल
में
इस
मुद्दे
को
दोनों
ही
दल
ने
किनारे
करते
हुए
प्रदेश
में
जीत
के
लिए
गठबंधन
करने
का
फैसला
लिया
है।
पहले
भी
हो
चुके
हैं
ऐसे
गठबंधन
प्रदेश
में
दो
बड़े
दल
जब
भी
एक
साथ
आए
हैं
उसके
पीछे
उनके
अपने
सियासी
हित
थे,
1993
में
जब
सपा-बसपा
साथ
आए
थे
तो
दोनों
की
गठबंधन
वाली
सरकार
सिर्फ
छह-छह
महीने
के
फार्मूले
पर
बनीं,
लेकिन
मायावती
के
बाद
मुलायम
सिंह
को
सीएम
पद
तक
पहुंचने
से
मायावती
ने
रोक
दिया।
1989
में
भी
सपा
और
भाजपा
साथ
आए
लेकिन
अयोध्या
में
रामलला
आंदोलन
के
बाद
जब
आडवाणी
को
गिरफ्तार
किया
गया
तो
भाजपा
ने
अपना
समर्थन
वापस
ले
लिया।
कांग्रेस और बसपा 2001 में भी एक साथ आ चुके हैं और बसपा ने सपा को सरकार बनाने के लिए अपना समर्थन दिया था। कई ऐसे मौके सामने आए जब सपा और बसपा ने कांग्रेस और भाजपा को रोकने के लिए एक साथ आ चुकी थी लेकन 2007 में जब प्रदेश में पहली बार पूर्ण बहुमत की सरकार बनी तो प्रदेश में गठबंधन की राजनीति को विराम लग गया था। लेकिन इस बार एक बार फिर से गठबंधन की राजनीति प्रदेश में दम भरने लगी है। बहरहाल यह देखना दिलचस्प होगा कि इस चुनाव के बाद 2019 में दोनों दल किन बातों पर एक दूसरे को साथ लेकर चलने को तैयार होते हैं या फिर यह गठबंधन इस चुनाव के बाद ही धराशाई हो जाएगा।
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