यूपी विधानसभा चुनाव 2017- काफी कुछ दांव पर है इस चुनाव में
यूपी चुनाव में इस बार काफी कुछ दांव पर है, एक तरफ जहां यह चुनाव मायावती के लिए अस्तित्व की लड़ाई है तो दूसरी तरफ नोटबंदी के बाद भाजपा की बड़ी परीक्षा
लखनऊ। उत्तर प्रदेश से देश को 15 में से 9 प्रधानमंत्री मिले हैं, इस लिहाज से यूपी की केंद्र की राजनीति में महत्ता काफी अधिक है। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुजरात के वड़ोदरा के साथ वाराणसी से चुनाव लड़ने का फैसला इसी लिहाज से किया कि वह यूपी के लोगों में वह अपनी पैठ बना सके। प्रदेश की इसी महत्ता के चलते यहां की राजनीति काफी अहम हो जाती है, यूपी की सत्ता में काबिज पार्टी देश की राजनीति को बदलने का माद्दा रखती है।
भाजपा के लिए बड़ी चुनौती
केंद्र की राजनीति के लिहाज से उत्तर प्रदेश भारतीय जनता पार्टी के लिए काफी अहम है, प्रदेश में बड़ी जीत ना सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी को और मजबूती देगी बल्कि नोटबंदी के फैसले पर लोगों की सहमति और साथ की भी मुहर लगेगी, इस लिहाज से अगर भाजपा को यूपी में जीत मिलती है तो इसे नोटबंदी के फैसले को सही जबकि हार मिलती है तो गलत कहा जा सकता है। यही नहीं यूपी के चुनाव के जरिए भाजपा राज्यसभा में भी अपनी स्थिति को बेहतर करना चाहेगी।
मजबूत या कमजोर होगी भाजपा?
उत्तर प्रदेश में 1992 के बाद से भारतीय जनता पार्टी की स्थिति कुछ खास नहीं रही, पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के यूपी से बाहर जाने के बाद भाजपा के लिए मुश्किल हो सकती है। हालांकि नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के चलते भाजपा लोकसभा चुनाव में अपनी स्थिति को बेहतर करने में सफल हुई और उसे प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में से 71 पर जीत हासिल हुई। समीक्षकों का मानना है कि 2014 की तरह इस साल इसकी पुनरावत्ति मुश्किल है, हालांकि पार्टी अच्छी चुनौती दे सकती है। यूपी में भाजपा को वापसी करने के लिए जातीय गणित को साधना होगा, ऐसे में पीएम मोदी और अमित शाह पर बहुत कुछ निर्भर करेगा।
कांग्रेस सपा की गोद में
वहीं
दूसरी
तरफ
कांग्रेस
पर
नजर
डालें
तो
पार्टी
पिछले
चुनाव
की
तुलना
में
इस
बार
अपनी
स्थिति
को
बेहतर
करने
की
कोशिश
करेगी।
कांग्रेस
की
मुख्यमंत्री
पद
की
उम्मीदवार
शीला
दीक्षित
पहले
ही
कह
चुकी
हैं
कि
अखिलेश
यादव
उनसे
बेहतर
मुख्यमंत्री
होंगे,
इस
लिहाज
से
देखे
तो
कांग्रेस
सपा
के
साथ
गठबंधन
के
लिए
तैयार
है
और
मुमकिन
है
कि
अगले
कुछ
दिनों
में
इस
गठबंधन
का
ऐलान
भी
हो
जाए।
वहीं
अगर
समाजवादी
पार्टी
के
लिहाज
से
देखें
तो
पार्टी
अभी
भी
भ्रम
की
स्थिति
में
है।
हालांकि
ज्यादातर
पार्टी
के
कार्यकर्ताओं
को
लगता
है
कि
अखिलेश
यादव
साफ
तौर
पर
प्रदेश
के
सबसे
लोकप्रिय
नेता
हैं
और
उन्हें
ही
पार्टी
की
कमान
के
साथ
मुख्यमंत्री
पद
के
दावेदार
के
साथ
चुनावी
मैदान
में
उतरना
चाहिए।
लेकिन
जिस
तरह
से
समाजवादी
पार्टी
में
कलह
चल
रहा
है
उसे
देखते
हुए
यह
मुश्किल
लगता
है
कि
समाजवादी
पार्टी
के
भीतर
घमासान
सपा
की
राह
को
आसान
कर
सके।
वहीं
दूसरी
तरफ
कांग्रेस
पर
नजर
डालें
तो
पार्टी
पिछले
चुनाव
की
तुलना
में
इस
बार
अपनी
स्थिति
को
बेहतर
करने
की
कोशिश
करेगी।
कांग्रेस
की
मुख्यमंत्री
पद
की
उम्मीदवार
शीला
दीक्षित
पहले
ही
कह
चुकी
हैं
कि
अखिलेश
यादव
उनसे
बेहतर
मुख्यमंत्री
होंगे,
इस
लिहाज
से
देखे
तो
कांग्रेस
सपा
के
साथ
गठबंधन
के
लिए
तैयार
है
और
मुमकिन
है
कि
अगले
कुछ
दिनों
में
इस
गठबंधन
का
ऐलान
भी
हो
जाए।
वहीं
अगर
समाजवादी
पार्टी
के
लिहाज
से
देखें
तो
पार्टी
अभी
भी
भ्रम
की
स्थिति
में
है।
हालांकि
ज्यादातर
पार्टी
के
कार्यकर्ताओं
को
लगता
है
कि
अखिलेश
यादव
साफ
तौर
पर
प्रदेश
के
सबसे
लोकप्रिय
नेता
हैं
और
उन्हें
ही
पार्टी
की
कमान
के
साथ
मुख्यमंत्री
पद
के
दावेदार
के
साथ
चुनावी
मैदान
में
उतरना
चाहिए।
लेकिन
जिस
तरह
से
समाजवादी
पार्टी
में
कलह
चल
रहा
है
उसे
देखते
हुए
यह
मुश्किल
लगता
है
कि
समाजवादी
पार्टी
के
भीतर
घमासान
सपा
की
राह
को
आसान
कर
सके।
मायावती के लिए अस्तित्व की लड़ाई
प्रदेश में बसपा और खुद मायावती के लिए यह चुनाव काफी अहम है, लोकसभा चुनाव में शून्य सीट हासिल करने के बाद मायावती के लिए प्रदेश में यह अस्तित्व की लड़ाई है। 2012 में भी बसपा का प्रदर्शन काफी खराब था, जिसके चलते मायावती को काफी नुकसान हुआ था, ऐसे में यह चुनाव मायावती के लिए करो या मरो का मामला है। चुनाव की तारीखों की घोषणा से एक दिन पहले जिस तरह से मायावती ने मुसलमानों को 100 से अधिक सीटें दी और ब्राह्मण सहित सवर्ण वर्ग के उम्मीदवारों को टिकट दिए हैं उससे साफ है कि मायावती इस बार के चुनाव में हर कोशिश करेंगी की वह फिर से सत्ता में वापसी कर से।