ELECTION SPECIAL: पता नहीं मगरमच्छों वाली कहानी कहाँ से आईः राजा भैया
राजा भैया 1993 से प्रतापगढ़ की कुंडा सीट से लगातार चुनाव जीत रहे हैं, वो भी बिना किसी पार्टी में शामिल हुए.
प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश का एक ज़िला, देश के सबसे पिछड़े इलाक़ों में से एक. यह मेरा गृहनगर भी है.
बरसों से, जब भी मैं यूपी से बाहर के किसी व्यक्ति को बताती हूं कि मैं मूलतः कहाँ से हूँ, तो सवाल पूछा जाता है कि क्या मैं राजा भैया को जानती हूँ?
ये सवाल रघुराज प्रताप सिंह के बारे में होता है जो कुंडा के पुराने राजपरिवार के सदस्य हैं. कुंडा, प्रतापगढ़ में पड़ता है और रघुराज प्रताप सिंह को लोग राजा भैया के नाम से जानते हैं.
47 वर्षीय, चार बच्चों के पिता कुंडा से लगातार छठी बार विधायक बनने के लिए चुनाव मैदान में हैं, जहाँ गुरुवार को मतदान हुआ है.
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राजा भैया के बारे में बरसों से तरह-तरह की कहानियाँ बुनी जाती रही हैं जिनमें वो किसी सिनेमाई विलेन की तरह का शख्स लगते हैं, जो अपने दुश्मनों को अपने महल के पास के तालाबों में मगरमच्छों के हवाले कर देता है.
राजा भैया इसे एक मनगढ़ंत बताते हुए कहते हैं, "मुझे बिल्कुल नहीं पता कि ये मगरमच्छों वाली कहानी कहाँ से आ गई. मेरे बच्चों ने उसी तालाब में तैरना सीखा, मैं वहाँ मछलियाँ पालता हूँ, अगर मगरमच्छ होता तो वो मछलियाँ नहीं खा जाता?"
चुनाव प्रचार के लिए निकले राजा भैया की लैंड क्रूज़र कार के चारों ओर मोटरसाइकिलों पर बैठे नौजवान समर्थकों ने घेरा बनाया हुआ था, जो थोड़ी-थोड़ी देर पर राजा भैया ज़िन्दाबाद के नारे लगा रहे थे.
रास्तों के किनारे खड़े लोग हाथ जोड़कर उनका अभिवादन करते हैं, राजा भैया भी उनकी ओर देखकर हाथ हिलाते हैं.
जगह-जगह इंतज़ार करते नौजवान उनकी गाड़ी की ओर दौड़ते हैं, उन्हें गाड़ी धीमी करनी पड़ती है. सब उनसे हाथ मिलाना चाहते हैं, कई तो खिड़की से ही हाथ डालकर उनके पैर छू लेना चाहते हैं.
कई बार वो गाड़ी से बाहर भी आते हैं, और गाँववालों की बातें सुनते हैं. यह सिलसिला चलता रहता है.
राजनीति और आपराधिक छवि
राजा भैया बताते हैं कि 1993 में उन्होंने राजनीति में क़दम रखा और एक निर्दलीय उम्मीदवार की हैसियत से चुनाव में उतरे. और वो तब से लगातार अपने विरोधियों को मात दे रहे हैं.
लखनऊ स्थित वरिष्ठ पत्रकार शरत प्रधान कहते हैं, "राजा भैया ने अब सम्मान अर्जित कर लिया है. वो डॉन की अपनी छवि को मिटा रहे हैं, मगर वो सुर्खियों में हमेशा नकारात्मक कारणों से आए."
प्रधान बताते हैं, "वे सामंती पृष्ठभूमि के हैं. उनके पिता एक राजा थे, 1972 में प्रिवी पर्स ख़त्म होने से पहले तक, गाँव वालों पर हमेशा उनका रौब रहा, उनके लिए वे बाद में भी शासक जैसे ही रहे. कुंडा में उनका ही राज चलता रहा. पुलिस और प्रशासन तक उनके सामने नहीं टिकता था."
हालाँकि वे कभी किसी राजनीतिक पार्टी में शामिल नहीं हुए, मगर वे हमेशा सत्ता पक्ष के नज़दीक रहे. वर्तमान की समाजवादी सरकार में वो मंत्री भी हैं.
मायावती का दौर और राजा भैया
मगर मायावती का दौर अलग था. चार बार मुख्यमंत्री रहीं मायावती ने 2002 में राजा भैया को जेल भिजवा दिया था.
राजा भैया कहते हैं, "उन्होंने मुझे सख़्त आतंकवाद-विरोधी क़ानून के तहत गिरफ़्तार करवाकर जेल भेजा, मेरे पिता को भी जेल भेजा गया."
उस वक़्त, मायावती ने उनकी गिरफ़्तारी के पीछे राजनीति होने से इनकार किया था. उन्होंने उनपर आरोप लगाया था कि वे सालों से आतंक फैला रहे थे और कुंडा के लोग ग़ुलामी का जीवन जी रहे थे.
राजा भैया कहते हैं, उनके ख़िलाफ़ दर्जनों झूठे आपराधिक मामले जड़ दिए गए.
उन्होंने कहा, " मुझपर दंगा, उगाही, लूटपाट, हमला, अपहरण, हत्या की साज़िश और यहाँ तक कि हत्या तक का आरोप लगाया गया. मुझपर मटका, मर्तबान से लेकर कुछ हज़ार रुपए चुराने का आरोप लगा. हर तरह की छोटी-छोटी चोरी में मेरा नाम जोड़ दिया गया."
वो जेल में बिताए गए अपने दिनों को आँखें खोलने वाला बताते हैं, क्योंकि उस दौरान उन्हें पढ़ने के लिए काफ़ी वक़्त मिला.
वो कहते हैं, "मुझे हिंदी साहित्य से हमेशा लगाव रहा था, ख़ासकर कविता से. मैंने हिंदू धार्मिक पुस्तकें जैसे गीता और रामचरित मानस भी पढ़ा."
शरत प्रधान कहते हैं कि 2007 में सत्ता में लौटने के बाद मायावती ने उन्हें और परेशान किया, उनपर एक पुलिस अफ़सर की हत्या का भी आरोप लगा.
मगर उन्हें सभी मामलों में बरी कर दिया गया है, सिवा एक मामले के जिसमें उनपर मामूली हिंसा का आरोप है.
हालाँकि इन मामलों से छुटकारा पाने के बावजूद राजा भैया अपनी नकारात्मक छवि से छुटकारा नहीं पा सके हैं.
आलोचकों की नज़र में उन्हें मामलों से छुटकारा इसलिए मिला क्योंकि लोग डर से गवाहियाँ देने नहीं आए.
मीडिया से नाराज़गी
उनकी माँ मंजुलराजे इसके लिए मीडिया को दोष देती हैं.
वो कहती हैं,"लोकल टीवी चैनलों पर उन्हें घुड़सवारी करता दिखाया गया, मगरमच्छों को खाना खिलाते हुए छेड़छाड़ कर बनाई गई तस्वीरें दिखाई गईं. उसे हमेशा बुरा दिखाया गया."
वो कहती हैं, "मुझे पता नहीं वो क्यों उसके ख़िलाफ़ हैं, शायद ये उसकी किस्मत में लिखा है."
पर अपने समर्थकों के लिए, वे एक बेदाग़ शख़्सियत हैं और उन पर लगने वाले आरोप अफ़वाह हैं.
तो आख़िर क्या वजह है कि राजा भैया मतदाताओं में इतने लोकप्रिय हैं?
रैली के लिए पहुँचते ही, उनके स्वागत में आतिशबाज़ी होती है, स्थानीय नेता उन्हें गुलाब और गेंदे की माला पहनाते हैं, समर्थक लकड़ी की आरी लहराते हैं, जो उनका चुनाव निशान है.
वो अपने समर्थकों से कहते हैं, "बिजली-पानी-सड़क तो कोई भी ला देगा, मैं केवल आपके विकास के लिए काम नहीं करुंगा."
वो कहते हैं, "मैं आपकी दूसरी समस्याएँ भी दूर करूँगा. मैं आपके ज़मीन के झगड़े निपटाउँगा ताकि आप मुक़दमों में अपने पैसे न लुटा डालें. मैं आपके घर के झगड़े भी सुलझा दूँगा, सास-बहू से लेकर मियाँ-बीवी के झगड़े तक."
अपने समर्थकों के लिए वे ग़रीबों के मसीहा हैं, गाँव वालों के लिए उनके शब्द क़ानून हैं, उनकी साप्ताहिक अदालतों में भारी भीड़ जुटती है.
बैंक में काम करने वाली सुमित्रा देवी सोनकर कहती हैं कि वो अपने परिवार की एक ज़मीन हासिल करना चाहती हैं जिसपर पड़ोसी ने कब्ज़ा कर लिया है.
वो कहती हैं, "उन्होंने वादा किया है कि चुनाव के बाद इसे देखेंगे."
किसान मेकू पाल कहते हैं कि वे राजा भैया को इसलिए वोट देंगे क्योंकि वे इलाक़े में शांति रखते हैं.
लतिफ़ुर रहमान कहते हैं, उन्होंने 1993 से उनके लिए वोट दिया है और मरते दम तक ऐसा करते रहेंगे.
संभवत: ये ऐसे ही वोटरों की निष्ठा है जिससे राजा भैया अपराजेय बने हुए हैं.