क्या 24 साल की सपा के ताबूत में मुलायम ने खुद ही आखिरी कील ठोक दी है?
सपा बिना अखिलेश के अब अधूरी है और मुलायम सिंह उसे नहीं संभाल पाएंगे, ये इसलिए क्योंकि जो चुनाव लड़ने का स्टाइल 2012 तक था, जिस तरह से मुलायम सिंह कई दशकों तक राजनीतिक करते रहे हैं, वो अब बदल गया है।
नई दिल्ली। दुनियाभर की राजनीति में ऐसे उदाहरण बहुत कम देखने को मिलते हैं जब कोई राजनीतिज्ञ पिता अपने बेटे को ही अपनी विरासत सौंपने से इंकार कर दे या फिर गद्दी सौंपने के बाद उसे वापस ले ले। 2012 में जब मुलायम सिंह यादव ने बेटे को मुख्यमंत्री बनाया तो भारत के इतिहास में ये कोई नई बात नहीं थी। पिता का अपने बेटे को सत्ता सौंपने का देश में एक लंबा इतिहास रहा है, जो राजशाही से लोकतंत्र तक बखूबी चल रहा है लेकिन आज जब मुलायम सिंह यादव ने बेटे को ही समाजवादी पार्टी से निकाला तो ये लोगों के लिए किसी झटके से कम नहीं है।
मुलायम सिंह यादव ने आज अखिलेश यादव को छह साल के लिए पार्टी से निकाल दिया है। पिता-पुत्र के रिश्तो में तनातनी के बीच, अखिलेश यादव, समाजवादी पार्टी और मुलायम सिंह यादव का भविष्य अब क्या होगा ये बड़ा सवाल है। समाजवादी पार्टी की उम्र 24 साल की है, 1992 में गठित हुई पार्टी के ताबूत में किया मुलायम सिंह से आखिरी कील ठोक दी है? क्या मुलायम सिंह यादव ने अखिलेश यादव को निकाल कर पार्टी को विधवा कर दिया है? ये सब सवाल हैं और आज की राजनीति के दौर में ऐसा कहने की कई बड़ी वजहे हैं।
मुलायम सिंह यादव 2012 के विधानसभा चुनाव में पार्टी का चेहरा थे, उनके नाम पर ही इलेक्शन हुआ था लेकिन पांच साल में सभी कुछ बदल चुका है। 2012 में चुनाव का माहौल कुछ और था। 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद चुनावों का अंदाज बदल गया है। सपा बिना अखिलेश के अब अधूरी है और मुलायम सिंह उसे नहीं संभाल पाएंगे, ये इसलिए क्योंकि जो चुनाव लड़ने का स्टाइल 2012 तक था, जिस तरह से मुलायम सिंह कई दशकों तक राजनीतिक करते रहे हैं, वो अब बदल गया है।
2014 के लोकसभा चुनावों के बाद इलेक्शन का अंदाज बदल गया है। इलेक्शन में अब मीडिया का इस्तेमाल ज्यादा होने लगा है, सोशल मीडिया अब लोगों तक पहुंचने का अहम टूल बन गया है। मुलायम सिंह यादव सोशल मीडिया को उस तरह से नहीं समझ सकते जिस तरह से अखिलेश यादव जानते हैं। सबसे बड़ी बात ये है कि अखिलेश ने मीडिया से डील करना सीख लिया है। उनका मीडिया के लोकप्रियता और बेहद आसानी से मीडिया के मुश्किल सवालों का जवाब देना उनके पक्ष में जाता है।
सबसे खास बात ये है कि मुलायम सिंह यादव-मुस्लिम समीकरण के सहारे राजनीति की सीढ़िया चढ़ीं लेकिन अखिलेश ने अपनी छवि विकास के प्रति समर्पित नेता की बनाई है। युवाओं में अपनी मीठी जुबान से अखिलेश खासे लोकप्रिय हो गए हैं। आज जब उत्तर प्रदेश चुनाव में भाजपा उनके सामने है जिसे मीडिया का इस्तेमाल करना बखूबी आता है तो ऐसे में अखिलेश के बिना चुनाव लड़ना आसान नहीं होगा। सपा में अखिलेश यादव ही ऐसे नेता बनकर उभरे हैं, जो लगातार मीडिया के बीच रहे हैं और मीडिया के साथ उनके संबंध काफी सहज रहे हैं।
अखिलेश यादव के मंत्री बनने और मुलायम सिंह यादव के किसी हद तक पीछे चले जाने के बाद पिछले पांच सालों में अखिलेश यादव पूरी तरह से पार्टी का चेहरा बन गए हैं। आज जब लगातार राजनीति में युवाओं की बात हो रही है तो ऐसे में मुलायम सिंह यादव बसपा और भाजपा का मुकाबला नहीं कर सकेंगे। सबसे बड़ी बात ये है कि सपा के उम्मीदवार उत्साह के चुनाव नहीं लड़ सकेंगे।
अखिलेश यादव के समर्थन में जिस तरह से उनके निष्कासन के बाद पार्टी के कार्यकर्ता आए हैं। उसे देखते हुए साफ है कि बिना अखिलेश के सपा का रास्ता मुश्किल होगा। अखिलेश यादव के समर्थन में जिस तरह से सपा के विधायक और नेता हैं, उसे देखते हुए ये साफ है कि 2017 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश के बिना जाने का सपा का फैसला खुदकुशी करने जैसा ही है। शिवपाल यादव इस समय मुलायम सिंह के साथ दिख रहे हैं। शिवपाल यादव संगठन को खड़ा करने के लिए जाने जाते हैं लेकिन जब चेहरों पर चुनाव लड़े जाने लगें हैं, ऐसे में मुलायम या शिवपाल के चेहरे पर चुनाव में वोट लेना सपा के लिए आत्मघाती हो सकता है। ऐसे में साफ है कि सपा का भविष्य इस समय खतरे में है, कम से कम आने वाले विधानसभा चुनाव में सपा बुरी तरह से बिखर सकती है।