संघ के करीबी रामनाथ के बाद संतों ने की अपने करीबियों की बात
'इसके साथ खालसा पंथ और आरएसएस भी दिशाहीन हो गए हैं। आरएसएस सिर्फ बीजेपी की प्रचारक रह गई है।'
इलाहाबाद। जैसे रामनाथ को बीजेपी राष्ट्रपति बनता देखना चाहती है कुछ वैसे ही संत समाज रामलला का मंदिर बनता देखना चाहते हैं। एक तरफ संघ के खास रामनाथ पर शोर है तो दूसरी तरफ शोर इस बाद का है कि संतों के बीच बीजेपी एक दौर में कैसी थी और उसके फैसले के पीछे 'राम' कैसे जुड़ा रहा है। रामलला से लेकर रामनाथ तक संत समाज ने बहुत कुछ देखा है, जिसे आखिर बताने का उनका भी मन कर ही दिया।
प्रयागराज यानी इलाहाबाद पहुंचे गोवर्धन पीठाधीश्वर जगतगुरू शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती ने राम मंदिर मुद्दे पर अब तक का सबसे बड़ा और दिलचस्प खुलासा किया है। उन्होंने मीडिया से मुखातिब होते हुये कहा कि - " अगर उन्होने पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव की बात मान ली होती तो आज रामलला तंबू में नहीं मंदिर में रह रहे होते। लेकिन राव की शर्त ऐसी थी जो मुझे मंजूर नहीं थी।
शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद ने आगे विस्तार से जानकारी देते हुए कहा कि - जब एकाएक देश में राम मंदिर को लेकर भूचाल आ गया और विवाद अपने चरम पर पहुंचा। तब तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने मुझसे मुलाकात की। राव ने कहा कि मैं रामालय ट्रस्ट के लिए साइन कर दूं। इसके लिए वह हर तरीके से मुझे मनाते रहे और जब मैं नहीं माना तो लगातार दबाव बनाया गया। लेकिन मैने रामालय ट्रस्ट के लिए साइन नहीं किया, क्योंकि राव की शर्त थी। वह शर्त थी कि मंदिर के सामने ही मस्जिद भी बने। मुझे मंदिर के सामने मस्जिद का विकल्प किसी भी कीमत पर मंजूर नहीं था। लेकिन आज मैं सोचता हूं कि उस वक्त अगर मैंने साइन कर दिया होता तो आज रामलला तंबू में नहीं, मंदिर में होते। लेकिन मंदिर के सामने मस्जिद भी होती।
शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती की खास बातें
शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती ने कहा कि नकली शंकराचार्य बनाए जा रहे हैं जो लॉबिंग करते है। इसके जिम्मेदार अखाड़ा परिषद के संन्यासी है। अखाड़ा परिषद पूरी तरह से दिशाहीन हो चुका है। इसके साथ खालसा पंथ और आरएसएस भी दिशाहीन हो गए हैं। आरएसएस सिर्फ बीजेपी की प्रचारक रह गई है।
शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद ने विद्वत परिषद पर कटाक्ष करते हुए कहाकि शंकराचार्य परंपरा ढाई हजार साल पुरानी है। विद्वत परिषद 200 साल से है। यह किसी शंकराचार्य को मान्यता नहीं दे सकते। सरकार ने नमामि गंगा योजना शुरू की पर इस नीति से तो सुधार संभव नहीं है। बीजेपी ने राम मंदिर मुद्दे को सिर्फ भुनाया है। केन्द्र और राज्य दोनों जगह सरकार है फिर भी खामोशी है। इससे बेहतर तो अटल बिहारी वाजपेयी जी थे। जब उनकी सरकार थी तब उन्होंने शत्रुघ्न सिन्हा के जरिए मंदिर के साथ मस्जिद बनाने की सहमति देने का संदेश मेरे पास भेजा था। लेकिन मैने साफ कह दिया था कि मुझे एक और पाकिस्तान नहीं बनाना है। लेकिन वाजपेयी जी ने अगर मंदिर नहीं बनाया तो मस्जिद भी नहीं बनने दिया।
शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद ने अपील करते हुए कहा कि सनातन संस्कार पर संविधान, रक्षा, शिक्षा, विकास की नीति तय की जानी चाहिए। तभी हमारा और राष्ट्र का विकास संभव नहीं है। विदेशी शिक्षा से कैसी उन्नति? अगर देश को सेक्युलर ही बनाना था, तो आजादी की जरूरत क्या थी?
शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद का परिचय
गोवर्धन पीठाधीश्वर जगतगुरू शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती का जन्म 30 जून 1943 को बिहार के दरभंगा में हुआ। इनके गांव का नाम हरिपुर बख्शीटोला है। दरभंगा उस समय रियासत हुआ करती थी। हालांकि अंग्रेजी हुकूमत ने देश में उस समय राजपाठ का सारा नियम कानून या तो बदल दिया था। या तो कब्जे में ले लिया था। जब इनका जन्म हुआ उस समय इनके पिता लालवंशी झा दरभंगा नरेश के यहां राजपुरोहित थे। मां गीता देवी विदुषी महिला थी।
इनकी प्रारंभिक शिक्षा दरभंगा, बिहार से ही हुई और यहां से शिक्षा प्राप्त कर दिल्ली चले गए। यहां दिल्ली में बड़े भाई डॉ. शुकदेव झा रह रहे थे। इनके साथ ही रहने लगे। दिल्ली के तिब्बतिया कॉलेज में आगे की पढ़ाई शुरू कर दी। दिल्ली में रहने के दौरान चुनावी गतिविधि में सक्रिय हुए और विद्यार्थी परिषद के उपाध्यक्ष और महामंत्री भी रहे। जैसे-जैसे इनकी उम्र बढ़ती गई। मन सांसारिक मोह से खिन्न होता गया। जब इनकी उम्र 31 की हुई तो यह हरिद्वार चले गए। वहां करपात्री जी महराज के हाथों उन्होंने संन्यास ग्रहण कर लिया। संन्यास की दीक्षा ग्रहण करने के बाद वे गोवर्धनमठपुरी उज्जैन के उस वक्त के 144वें शंकराचार्य जगतगुरू स्वामी निरंजनदेव तीर्थ महराज की सेवा में पहुंच गए। वहां निश्चल सेवा भक्ति और ईश्वर का तेज ललाट पर देख कर स्वामी निरंजनदेव जी ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। निरंजनदेव जी के बाद यह जगतगुरू शंकराचार्य बने और आज इस पद कि गरिमा को बढ़ा रहे हैं। इतने वर्षों में इन्होंने किसी राजनीतिक दल का चोला नहीं पहना। हालांकि इसे यह विशेष भी मानते हैं और कमी भी।