यूं ही नहीं बगावती हुए अखिलेश, हैसियत तो दिखानी ही थी!
आखिरकार मुलायम सिंह का अखिलेश यादव पर लगातार हमला भारी पड़ा, यूं ही नहीं अखिलेश यादव अपने ही पिता के खिलाफ हो गए बागी।
लखनऊ। उत्तर प्रदेश चुनाव से पहले समाजवादी कुनबे में मचे घमासान के चलते प्रदेश में सियासी पारा काफी उपर पहुंच चुका है। अखिलेश यादव ने जिस तरह से अपने ही पिता और सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के खिलाफ बगावत की उसकी मुलायम सिंह यादव को खुद भी उम्मीद नहीं थी। लेकिन अखिलेश यादव के इस बगावती सुर के पीछे सपा के भीतर उनके विवाद पर भी नजर डालने की जरूरत है। एक तरफ जहां मुलायम सिंह यादव तमाम मौकों पर सार्वजनिक मंच पर अखिलेश यादव को डांटते थे तो अखिलेश यादव उसे पिता की डांट और सुझाव के तौर हंसते हुए टाल देते थे।
सार्वजनिक मंच पर बदनामी महंगी साबित हुई
अखिलेश यादव ने अपने ही पिता का पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद से हटाते हुए खुद उसपर कब्जा किया, उनके इस फैसले को समझने के लिए यह जरूरी है कि उस विवाद को समझा जाए जो सार्वजनिक मंच 24 अक्टूबर 2016 को हुआ, उस वक्त अखिलेश यादव, मुलायम सिंह यादव और शिवपाल यादव के बीच सार्वजनिक मंच पर जमकर कहासुन हुई थी। जिस दौरान ये तीनो पार्टी कार्यालय में इकट्ठा हुए तो मुलायम सिंह ने अपने संबोधन में कहा था कि अखिलेश यादव तुम्हारी हैसियत ही क्या है, अपने दम पर चुनाव नहीं जीत सकते हो, उन्होंने यहां तक कहा था कि अमर सिंह मेरा भाई है, उन्होंने कई बार हमें बचाया है। अखिलेश यादव ने पार्टी के भीतर बगावत कर ना सिर्फ अपनी हैसियत दिखाई बल्कि यह भी साफ कर दिया कि पार्टी में उनकी लोकप्रियता सबसे अधिक है। सपा के 224 विधायकों में से 195 विधायकों ने अखिलेश का समर्थन किया, यही नहीं तमाम संसदीय बोर्ड के पांच में से चार सदस्यों ने भी अखिलेश का समर्थन किया।
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पढ़े-
मुलायम
सिंह
के
इस
धांकड़
दांव
के
सामने
चित
हो
सकते
हैं
अखिलेश
पिता
ने
बेटे
के
सम्मान
को
समझने
में
चूक
की
अखिलेश
यादव
को
सीएम
की
कुर्सी
देने
का
फैसला
मुलायम
सिंह
यादव
का
था
और
इस
बात
को
अखिलेश
यादव
स्वीकार
भी
करते
थे
और
हर
मंच
पर
कहते
थे
कि
नेताजी
का
फैसला
हमें
मंजूर
है,
लेकिन
जिस
तरह
से
हर
मंच
पर
अखिलेश
यादव
को
इस
बात
का
सामना
करना
पड़ता
था
कि
वह
मुख्यमंत्री
अपने
दाम
पर
नहीं
बल्कि
कृपा
पर
बने
हैं
और
अमर
सिंह,
शिवपाल
सिंह
समेत
तमाम
नेताओं
का
पार्टी
में
अहम
योगदान
है।
लिहाजा
अखिलेश
यादव
इस
दावे
को
सुनते
थे
लेकिन
वह
पिता
के
सम्मान
के
चलते
उनका
खंडन
नहीं
करते
थे।
परिवार
के
भीतर
बाहरी
पड़े
भारी
लेकिन
जिस
तरह
से
पार्टी
के
भीतर
शिवपाल
यादव
और
अमर
सिंह
का
हस्तक्षेप
बढ़ता
गया
और
अखिलेश
यादव
की
राय
के
खिलाफ
तमाम
ऐसे
फैसले
लिए
गए
जिनपर
वह
सहमत
नहीं
थे,
जिनमें
कई
दागी
उम्मीदवारों
को
टिकट
दिया
जाना,
विवादित
विधायकों
जैसे
गायत्री
प्रजापति
को
मंत्रालय
देना,
कौमी
एकता
दल
का
विलय
और
आखिर
में
उन
लोगों
को
टिकट
दिया
जाना
जिनके
खिलाफ
अखिलेश
यादव
थे।
अखिलेश
यादव
तमाम
फैसलों
के
खिलाफ
बोलते
तो
रहे
लेकिन
उनकी
राय
को
हर
बार
दरकिनार
किया
जाता
रहा।
ऐसे
में
अखिलेश
के
लिए
यह
काफी
अहम
था
कि
वह
या
तो
इन
सारे
फैसलों
को
सहते
रहते
या
फिर
दूसरे
विकल्प
के
बारे
में
सोचें।
लिहाजा
अगर
हालात
यहां
तक
पहुंचे
हैं
तो
इस
बारे
में
खुद
मुलायम
सिंह
को
सोचना
चाहिए
कि
इसके
लिए
वास्तव
में
जिम्मेदारी
किसकी
है।