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Report: ओलंपिक में भारत का प्रदर्शन क्यों रहा निराशाजनक, पढ़ें असली और पूरी जानकारी तथ्यों के साथ

By अभिषेक वाघमारे

नई दिल्ली। रियो ओलंपिक कल समाप्त हो चुका है। इसके समापन के साथ ही हर तरफ खेल समीक्षाओं का दौर जारी है। किस देश के खिलाड़ियों ने कैसा प्रदर्शन किया, कहां कमी रह गई...वगैरह वगैरह फैक्टर ध्यान में रखते हुए असेसमेंट किया जा रहा है।

भारत की तरफ से व्यक्तिगत स्पर्धा में इकलौते गोल्ड मेडल विजेता ​अभिनव बिंद्रा ने पिदले दिनों एक ट्वीट किया जो काफी कुछ सोचने को मजबूर करता है। उन्होंने लिखा कि, 'ब्रिटेन के एक मेडल की कीमत है 5.5 यूरो डॉलर।' उनका इशारा भारत में खेलों में निवेश के बजट को बढ़ाने पर था।

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इंडियास्पेंड की एक रिपोर्ट के मुताबिक, ओलंपिक में खेलों को लेकर भारत ब्रिटेन के बजट का तीन चौथाई हिस्सा ही खर्च करता है! ब्रिटेन ने इस बार रियो ओलंपिक में 67 मेडल जीते जबकि भारत के खाते में महज 2 मेडल ही आए!

इसकी समीक्षा के अनुसार, ब्रिटेन भार​त के मुकाबले कुछ एथलीट पर खर्च करता है जहां धन को कई फेडरेशंस और खिलाड़ियों में बांटा जाता है।

ज्यादा युवा लेकिन कम पदक!

दूसरा जो चौंकाने वाला तथ्य सामने है, वह है कि भारत में 400 मिलियन लोग 15 से 35 वर्ष की आयु के बीच हैं जबकि ब्रिटेन में यह संख्या महज 18 मिलियन ही है! ब्रिटेन से तुलनात्मक रूप से ज्यादा युवा होने के बावजूद, भारत कम मेडल लाने में कामयाब हुआ है।

ब्रिटेन सरकार की बॉडी यूके स्पोर्ट ओलंपिक खेलों के प्रबंधन से लेकर खर्च तक का जिम्मा उठाती है। इस बार कुल खर्च के हिसाब से ब्रिटेन को एक मेडल की कीमत तकरीबन 7 मिलियन डॉलर पड़ी। यूरो में देखें तो यह लगभ 5.5 मिलियन यूरो है।

ब्रिटेन खेल से जुड़े इंफ्रास्ट्रक्चर और प्रशिक्षण पर तकरीबन 1.5 बिलियन डॉलर यानी 9 हजार करोड़ रुपए सालाना खर्च करता है। जबकि 2013 से 2017 तक के चार साल के अंतराल में देखा जाए तो ब्रिटेन ने 350 मिलियन डॉलर खर्च किए हैं!

आंकड़े बोलते हैं...

जबकि तुलनात्मक रूप से भारत ब्रिटेन का एक तिहाई यानी 500 मिलियन डॉलर (Rs 3,200 करोड़) ही खेलों पर खर्च करता है। यह आंकड़ा छह बड़े राज्यों में खेलों पर हुए खर्च पर आधारित है।

युवा कल्याण एवं खेल मंत्रालय यूनियन बजट में नेशनल स्पोर्ट फेडरेशन और क्षमतावान खिलाड़ियों को नेशनल स्पोर्ट डेवलपमेंट फंड के ​जरिए टार्गेट ओलंपिक पोडियम यानी टीओपी प्रोग्राम के तहत देता है। एनएसडीएम को सरकारी मदद के अलावा प्राइवेट और पब्लिक सेक्टर की कंपनियां भी वित्तपोषित करती हैं।

फेडरेशन की संख्या 57 से गिरकर 49

2016 के आंकड़ों के अनुसार, भारत में प्रमुख खेल फेडरेशन की संख्या 57 से गिरकर 49 हो गई है। बीते तीन वर्षों के आंकड़ों पर नजर दौड़ाएं तो पाएंगे कि फंडिंग में गिरावट दर्ज हुई है। जबकि स्पोर्ट इंफ्रास्ट्रक्चर और प्रशिक्षण के लिए पास होने वाले खेल बजट से केवल 8 फीसदी धनराशि ही एथलीट्स को स्पेशल कोचिंग देने में खर्च होती है।

एनएसडीएम में 109 एथलीट हैं जिनमें से इस बार महज 30 ही रियो ओलंपिक खेलों के लिए क्वॉलीफाई कर सके।

जबकि टीओपी प्रोग्राम के तहत 97 एथलीट्स की फंडिंग होती है और इनमें से महज 68 ही रियो ओलंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व करने के योग्य बन सके।

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जबकि टीओपी प्रोग्राम के तहत प्रति एथलीट तकरीबन 9.8 लाख रुपए खर्च होते हैं। इनमें ट्रेनिंग सेंटर से लेकर कोचिंग फीस आदि सब शामिल है।

ब्रिटेन में भारत के मुकाबले 4 गुणा अधिक खर्च

रियो में पदक तालिका में तीसरा स्थान हासिल करने वाले ब्रिटेन ने कुल 374 एथलीट्स पर 350 मिलियन डॉलर खर्च किए। इस हिसाब से प्रति एथलीट 1 मिलियन डॉलर का खर्च हुआ, जिसमें इंफ्रास्ट्रक्चर और कोचिंग आदि सबकुछ शामिल है।

मेडल जीतने वाले खिलाड़ियों पर होने वाला खर्च तकरीबन 36 हजार डॉलर प्रतिवर्ष है, जो कि भारत में प्रत्येक खिलाड़ी पर होने वाले खर्च यानी 9 हजार डॉलर के मुकाबल चार गुणा है।

ब्रिटेन ने चुनिंदा खिलाड़ियों पर ज्यादा खर्च करने की प्रथा 1997 के बाद शुरू की जिसका बाद में परिणाम भी दिखा। अटलांटा ओलंपिक्स में महज 5 मिलियन पाउंड खर्च करने के बाद ब्रिटेन ने केवल एक ही स्वर्ण पदक हासिल किया था और 36वें स्थान पर रहा था।

लेकिन अब लगभग 100 साल बाद इतिहास बदल गया है। इस बार रियो में ब्रिटेन में इतना अच्छा प्रदर्शन किया कि वह टॉप 3 देशों में शुमार रहा।

स्वर्ण पदक के लिहाज से ब्रिटेन पदक तालिका में दूसरे स्थान पर रहा जबकि भारत एक चांदी और एक कांस के साथ 67वें स्थान पर रहा।

अमरीका में कुछ अलग है प्रथा

ब्रिटेन ने 1996 अटलांटा ओलंपिक खेलों से सबक लेते हुए ओलंपिक के लिए फंडिंग में इजाफा करना शुरू किया। जबकि अमरीका में कहानी और ही है। यहां के खिलाड़ी निजी स्तर पर भी प्राइवेट फंड इकट्ठे करते हैं। उन्होंने खुद को फंड करने के लिए फंडिंग पोर्टल बना रखे हैं जहां पब्लिक पैसे जमा करती है।

गार्जियन की एक रिपोर्ट की मानें तो अमरीका में ओलंपिक कमेटियों की कुल धनराशि का महज 10 फीसदी ही एथलीट्स पर खर्च किया जाता है। इस बार अमरीका ने रियो ओलंपिक में टॉप पोजीशन हासिल की है।

जबकि चीन पदक तालिका में तीसरे स्थान पर रहा है। इस देश को खेलों में खर्च को लेकर आक्रामत नीति अपनाने वाला माना जाता है। 10 सालों के प्रयास के बाद चीन बीजिंग 2008 ओलंपिक में पहली बार पहले स्थान पर रहा था।

भारत में प्राइवेट फंडिंग बढ़ी ले​किन...

भारत में एनएसडीएफ के जरिए खेलों को मिलने वाले योगदान का तो लिखित ब्योरा रहता है लेकिन खिलाड़ियों को व्यक्तिगत तौर पर मिलने वाली धनराशि का कोई हिसाब-किताब नहीं रहता है। भारत में हाल ही पब्लिक सेक्टर कंपनी इंडिया इंफ्रास्ट्रक्चर फाइनेंस कंपनी लिमिटेड ने एनएसडीएफ को तीन साल के लिए 30 करोड़ रुपए दिए थे।

जबकि रिलायंस जियो, एडेलविस फाइनेंशियल सर्विसेज, अमूल, टाटा साल्ट, हर्बललाइफ, ली निंग और एसबीजे आदि कंपनियों ने भी ​इंडियन ओलंपिक एसोसिएशन को फंडिंग की।

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वहीं 2010 में हॉन्ग कॉन्ग ट्रिप पर हॉन्ग कॉन्ग सुपर सीरीज जीतकर दुनिया की नंबर 2 रैंकिंग पर काबिज होने वाली भारतीय शटलर साइना नेहवाल को ओलं​पिक गोल्ड क्वेस्ट ने फंड दिया था। यह फाउंडेशन पूर्व खिलाड़ियों ने मिलकर बनाया है।

वहीं 2010 कॉमनवेल्थ गेम्स आयोजित कराने में खेल मंत्रालय ने कुल 1500 करोड़ रुपए खर्च किए थे। इस बारे में इंडियास्पेंड ने 2014 में रिपोर्ट भी किया था। इसमें खुलासा हुआ था कि एनएसडीएफ ने पैसे को सही ढंग से नहीं खर्च किया था।

(Indiaspend.org is a data-driven, public-interest journalism non-profit/FactChecker.in is fact-checking initiative, scrutinising for veracity and context statements made by individuals and organisations in public life.)

Story first published: Tuesday, November 14, 2017, 13:03 [IST]
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